दलित मुस्लिम एकता और डॉ योगेन्द्र मंडल

डॉ योगेंद्र मंडल


वह 5 अक्तूबर की ही तारीख थी, जब भारत में दलित राजनीति के एक चमकते हुए सितारे ने गुमनामी के अंधेरे में अपनी आखिरी सांस ली थी। बेबसी और मुफलिसी की हालत में उन्होंने पश्चिम बंगाल में दम तोड़ दिया और आज इतिहास उनको वह जगह देने को भी तैयार नहीं, जिसके वह शायद हकदार थे। यह शख्स हैं जोगेंद्र नाथ मंडल, जोगेंद्र नाथ मंडल को दलित-मुस्लिम एकता के एक असफल प्रयोगकर्ता के तौर पर याद किया जाता है एक ऐसा प्रयोग, जिसका दर्दनाक अंत हुआ। 

मंडल का वैचारिक परिणाम

कम ही लोग जानते हैं कि बाबा साहब आंबेडकर की सलाह को अनसुना कर जोगेंद्र नाथ मंडल न कि सिर्फ खुद पाकिस्तान चले गए, बल्कि हज़ारों दलित परिवारों को अपने साथ ले गए। इस्लामिक देश में मानवता स्थापित करने का झांसा दिलाकर जिन्ना ने पहले उनको मुस्लिम लीग से जोड़ा और फिर बंटवारे के बाद उन्हें पाकिस्तान संविधान सभा का अध्यक्ष भी बनाया इतना ही नहीं, बंटवारे के बाद मंडल पाकिस्तान के पहले कानून और श्रम मंत्री भी बनाए गए। लेकिन अपने ही हाथों बनाई गई इस्लामिक सरकार में मंडल ने जब पाकिस्तान के मुसलमानों के हाथों निशाना बनाकर दलितों की निर्ममतापूर्वक हत्याएं, बलात् धर्म-परिवर्तन और दलित बहन-बेटियों की आबरू लुटते देखी, तो वह सब कुछ छोड़कर भारत वापस लौट आए और गुमनामी के अंधेरे में ही उनकी मौत हो गई। अपने अंतिम क्षणों में वह इस प्रयोग पर पछताते रहे, पाकिस्तान जाने का दुख उन्हें सालता रहा, पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुस्लिमों के हाथों लाखों दलितों के नरसंहार का पश्चाताप उन्हें कचोटता रहा। पश्चाताप इसलिए, क्योंकि इनमें से लाखों दलित परिवार उन्हीं की अपील पर पाकिस्तान का हिस्सा बनने को तैयार हुए थे जिन्हें वे सुरक्षा नहीं दे पाए वे सभी दलित इस्लामिक जिहाद (हिंसा, हत्या, बलात्कार) के शिकार हुए।

योगेन्द्र मण्डल का संघर्ष

29 जनवरी, 1904 को अविभाजित भारत के बंगाल प्रांत के एक तथाकथित शूद्र परिवार में जन्मे जोगेंद्र नाथ मंडल का बचपन गरीबी और उपेक्षा में बीता। दलितों के प्रति अन्याय, छुआछूत और उपेक्षा के रवैये ने उनको ऐसा उद्वेलित किया कि कलकत्ता विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह समाजसेवा के क्षेत्र में कूद पडे़। यह रास्ता उन्हें सक्रिय राजनीति की तरफ ले गया और वह कांग्रेस से जुड़ गए। इसी बीच उनकी मुलाकात बाबा साहब आंबेडकर से हुई वह दलितों के हितों, उनके सम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रहे थे, जिसमें उन्हें कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। कांग्रेस बाबा साहब को हर हाल में रोकने में जुटी थी, उन्हें राजनीतिक तौर पर स्थापित नहीं होने देना चाहती थी। दलितों और दलित नेताओं के प्रति कांग्रेस के इस रवैये से नाराज जोगेंद्र मंडल ने कांग्रेस छोड़ 'मुस्लिम लीग' का दामन थाम लिया और 'दलित-मुस्लिम' राजनीतिक एकता का नारा दिया। यह भारतीय राजनीति में ऐसा पहला प्रयोग था, इसी बीच राजनीतिक समीकरण तेजी से बदलने लगे। संविधान सभा में बाबा साहब न पहुंच सकें, इसके लिए कांग्रेस ने पूरी ताकत झोंक दी। ऐसे में मंडल ने खुलना-जैसोर से अपनी सीट खाली करके बाबा साहब को चुनाव जिताकर संविधान सभा के लिए निर्वाचित करा दिया.। कांग्रेस ने यहां भी एक खेल खेला, बाबा साहब को राजनीति से बाहर करने के लिए कांग्रेस ने हिंदू बहुल क्षेत्र होने के बावजूद 'खुलना-जैसोर' को पाकिस्तान के हाथों सौंप दिया और ऐसे में बाबा साहब तकनीकी तौर पर पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गए.। बाबा साहब ने इसका विरोध किया, जिसके बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। बाद में बाबा साहब मुंबई राज्य से 'एम.एस. जयकर' द्वारा खाली की गई सीट से चुनकर 'भारतीय संविधान सभा' में पहुंच पाए।

बाबा साहब का बैचारिक विरोध


बाबा साहब अखंड भारत के पक्ष में थे, उन्हें न तो बंटवारा कुबूल था और न पाकिस्तान का बनना, उन्होंने बंटवारे के लिए तैयार महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ जिन्ना का भी पुरजोर विरोध किया। अपनी पुस्तक "पार्टीशन ऑफ इंडिया पाकिस्तान" में इसका पूरा  ब्योरा है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते कांग्रेस ने देश का बंटवारा करा डाला। उनका यह भी मानना था कि जब धार्मिक आधार पर बंटवारा हो चुका है, तब पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को भारत आ जाना चाहिए और भारत के मुसलमानो को पाकिस्तान चले जाना चाहिए। उन्होंने यह भी आशंका जताई थी कि धर्म के आधार पर देश के बंटवारे से मानवता को गंभीर क्षति पहुंचेगी और ऐसा हुआ भी! वह हिंदुओं में दलितों के रवैये को लेकर तो लड़ ही रहे थे, वह यह भी जानते थे कि इस्लाम मानने वालों का रवैया भी दलितों के प्रति कोई बहुत अच्छा नहीं है। वे कहते थे कि दलितों की समस्या हमारी अपनी ही समस्या है हम मिल बैठकर निपटाएंगे। वे कहते थे कि इस्लाम का प्रेम मुहब्बत केवल मुसलमानों के लिए है न कि अन्यों के लिए। डॉ आंबेडकर कोई भी दलित पाकिस्तान में जाय इसके प्रबल विरोधी थे लेकिन डॉ योगेन्द्र मंडल नहीं माने लाखों दलितों की जिंदगी नष्ट कर दिया। 

और फिर पश्चाताप

ऐसे में जब जोगेंद्र नाथ मंडल दलितों को लेकर पाकिस्तान जाने लगे, तो बाबासाहब आंबेडकर ने उन्हें बहुत रोका पर मंडल नहीं माने। वहां जाकर कुछ ही दिनों में मंडल के दिल से दलित-मुस्लिम एकता का भ्रम टूट गया। यह प्रयोग अपने दर्दनाक अंजाम तक जा पहुंचा और इसकी परिणति जोगेंद्र मण्डल के इस्तीफे में हुई। उन्होंने एक पत्र लिखा "जैसा मैंने इस्लाम को जाना" जो उन्होंने 8 अक्तूबर, 1950 को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली को सौंपा था और वापस भारत लौट आए। अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा कि किस तरह पाकिस्तान सरकार में मंत्री रहते हुए भी वह दलितों को बहुसंख्यकों (मुसलमानो) के अत्याचार से नहीं बचा पाए। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बचे ज्यादातर दलित या तो मार दिए गए या फिर मजबूरी में उन्होंने धर्म परिवर्तन कर लिया। अपनी ही हुकूमत में वह चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन पाकिस्तान सरकार न तो दलितों की मदद के लिए आई, न ही अल्पसंख्यक हिंदुओं की हिफाजत के लिए उसने कोई कदम उठाया! दलित-मुस्लिम एकता का असफल राजनीतिक प्रयोग के संताप, क्षोभ, अभाव में प्रखर कानूनविद्, मुखर और विद्वान दलित नेता जोगेंद्र मंडल ने 5 अक्तूबर, 1968 को पश्चिम बंगाल के बनगांव में गुमनामी जिंदगी बिता अंतिम सांस ली।