कुम्भ---- केवल हमारी परंपरा ही नहीं, हमारी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय एकता का पर्व--!

कुभ और महाकुम्भ!

ये केवल मेला नहीं अथवा कोई परंपरागत त्यौहार भी नहीं तो ये क्या है--? हमारे पूर्वजों ने ऐसा क्या किया--? जिसमे बिना किसी प्रचार-प्रसार के लाखों ही नहीं करोणों की संख्या में आते हैं पंचांग के एक लाइन पर, आम भारतीय संतो की टोली विभिन्न अखाड़े भारतीय सभी पन्थो के संत महंत महामंडलेश्वर विभिन्न संप्रदाय के जगद्गुरु, सभी शंकराचार्य अपने-अपने अखाड़ो सहित यहाँ आते हैं यही शंकराचार्यों के उत्तराधिकारियों का चयन महामंडलेश्वरों का चुनाव व नियुक्तिया होती है ऐसा लगता है की सम्पूर्ण भारत उमड़ रहा हो ऐसी परंपरा क्यों पड़ी या डाली गयी--? भारत में यह सहज व स्वाभाविक प्रक्रिया है यहाँ लोकतंत्र कोई नया नहीं है, (एक बार कुछ पश्चिम मतावलंबी कुम्भ में आये वे पं. महामना मदनमोहन मालवीय से मिले उन्होंने पूछा की इतनी बड़ी संख्या में लोग आये है तो विज्ञापन में तो बड़ा ही धन खर्च लगा होगा मालवीय जी ने अपनी जेब से दो आने वाला पंचांग दिखा दिया बस इतना खर्च हुआ ) हमेसा सर्व सहमति से ही सभी विषयो का चयन होना हमारे स्वभाव में रहा है इस नाते किसी को भारत को लोकतंत्र सिखाने की जरुरत नहीं--!

हमारी संस्कृति-राष्ट्रीयता का प्रतीक

कुम्भ हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक है सभी पंथ और संप्रदाय इसमें सम्लित हम भारतीय एक है इसकी गवाही देते और साक्ष्य बनते है शैव, वैष्णव, शाक्त, अघोर पंथी, उदासी, सिक्ख, जैन और बौद्ध मतावलंबी कुम्भ में उपस्थित होकर पूरे वर्ष भर का विचार बिमर्ष करते है, पूरी परंपरा में क्या-क्या परिवर्तन करना है सब कुम्भ में होता है, भारतीय समाज में क्या करना है कौन सा शंदेश देना है -? कौन सी परंपरा हमारे समाज को नुकसान पंहुचा रही है-? सभी विषयो पर विचार कर परिवर्तन किया जाता था यह सभी को स्वीकार्य था साधू-सन्यासियों के माध्यम से हिन्दू समाज के सभी घटकों में इसका पालन कराया जाता था, अभी आज कौन सा ऐसा पक्ष है जो कुम्भ में सामिल नहीं होता यानी भारतीय राष्ट्र में सम्लित नहीं होना चाहता. इस पर हमें विचार करना होगा, इस्लाम और ईसाई मतावलंबी क्या भारतीय राष्ट्र के अंग नहीं-? या वे इस राष्ट्र के अंगभूत नहीं होना चाहते-! यदि वे यह समझते हो कि सेकुलर के नाम पर वे हमेसा अलगाव बाद के रास्ते पर चलेगे तो भारत को भी इस पर विचार करना होगा, समय बदलेगा कभी तो कोई राष्ट्रबादी भारत का नेतृत्व करेगा ही, कभी तो भारतीय समाज जागेगा ही, फिर क्या होगा इन विदेशी मतावलंबियो का --? इन बिधर्मियो को भारतीय बनने के लिए विचार करना होगा और भारतीय कुम्भ में सामिल होना होगा, इन्हें इस विषय पर चिंतन करना, भारतीय समाज को इनका समावेश हो इस पर विचार ----! इन्हें (ईसाई-मुसलमान ) अपने दोनों हाथो को फैलाकर कुम्भ की दिसा में बढ़ना चाहिए विदेशी विचार छोड़कर भारतीय संस्कृति में समरस होकर एक रस हों, जिससे भारतीय राष्ट्र में सम्लित हो सकें तभी कुम्भ की सार्थकता सवित होगी, कुम्भ हमारे राष्ट्र निर्माण और समाज ब्यवस्था का एक हिस्सा है जो हमारे समाज को नित्य नूतन बनाये रखने में निरंतर सचेत करता रहता है ।

नित्य नूतन पर चिंतन यानी कुंभ

पुरानो की कथा है की समुद्र मंथन से जब अमृत कलश निकला बितरण को लेकर देवताओ और राक्षसों में छिना- झपटी हुई --जहाँ-जहाँ अमृत छलका गिरा वहां-वहां कुम्भ लगने लगा वास्तव में यह समरसता का अद्भित प्रयोग और समरसता का महाकुम्भ है जिसका उदहारण शायद कहीं मिले किसी भी समाज को लम्बे समय तक रहना होता है तो उसमे नित्य नए-नए प्रयोग समाज को एक जुट रखने समरस रखने बिचार को नित्य नूतन बनाये रखने नयी चेतना और उर्जा बनाये रखने हेतु समाज को चिरस्थायी बने हेतु कुम्भ भारतीय समाज का आधार है जहाँ एक तरफ सभी मत, पंथ और संप्रदाय के लोग अपनी रीती रिवाज और समाज उत्थान की दृष्टि से बिना किसी भेद-भाव से इकठ्ठा होते है हमें क्या-क्या सुधार करना है- ? सब विषयो पर विचार करते हैं, वहीँ सभी जाति, भाषा और क्षेत्र से ऊपर उठकर संत दर्शन और संगम स्नान हेतु आते है वे किसी से न तो अपनी जाती बताते हैं न ही दुसरे से पूछते हैं यह दुनिया का अनूठा उदहारण है जो लाखों वर्षों से समाज के चिंतन के आधार पर चला आ रहा है, आज जिन प्रमुख स्थानों पर कुम्भ लगता है वे स्थान गंगा जी के किनारे हिमालय में हरिद्वार, गंगा -यमुना और सरस्वती जी का संगम प्रयाग, क्षिप्रा नदी के किनारे उज्जैन और गोदावरी तट पर नासिक है, लेकिन कुछ प्रमाणों से कहना है की भारत में २7 नक्षत्र, 6 ऋतुएं, १२ राशियाँ इनके मिलन बिंदु को लेकर १२ स्थानों पर कुम्भ लगते थे जिसमे एक स्थान मक्का भी था, काल परिस्थितियां बदली हज़ार वर्ष का संघर्ष हिन्दू समाज दुर्बल हुआ परिणाम हम बहुत कुछ भूल गए कुछ नयी रीती रिवाज प्रारंभ किये गए कुछ पुराने रीती रिवाज बंद हो गए, कहते है कि यह कुम्भ दान का भी महान पर्व है चक्रवर्ती सम्राट हर्ष वर्धन ने इस कुम्भ को विस्तार दिया वे प्रत्येक वर्ष सब -कुछ दनकर वापस घर जाते थे आज भी दान की परंपरा जारी है।

कुमारिल का आत्मदाह संगम पर

 इसी संगम तट पर वैदिक धर्म के पुनरो-धारक आचार्य कुमारिल भट्ट ने आत्मदाह किया उसी समय आदि जगदगुरु शंकराचार्य से उनकी भेट हुई, इसी संगम तट पर सम्राट अशोक ने विशाल किला का निर्माण किया जिसमे वैदिक कालीन वट वृक्ष मौजूद है, उदार कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने उसे कटवाकर फेका ही नहीं तो खुदवाकर उसमे शीशा पिघलवाकर डाल दिया जिससे मान्यता अनुसार हन्दू धर्म समाप्त हो जाय, इश्वर की होनी को कौन मेट सकता है उसी कुँए में से वह वट वृक्ष आज निकल आया और सेना के कब्जे वाले उस किले में उसके दर्शन हेतु लाखों श्रद्धालू जाते है और अपने मुक्ति की कामना करते हैं ।

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4 टिप्पणियाँ

  1. दिन तीन सौ पैसठ साल के,
    यों ऐसे निकल गए,
    मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण,
    ज्यों कहीं फिसल गए।
    कुछ आनंद, उमंग,उल्लास तो
    कुछ आकुल,विकल गए।
    दिन तीन सौ पैसठ साल के,
    यों ऐसे निकल गए।।
    शुभकामनाये और मंगलमय नववर्ष की दुआ !
    इस उम्मीद और आशा के साथ कि

    ऐसा होवे नए साल में,
    मिले न काला कहीं दाल में,
    जंगलराज ख़त्म हो जाए,
    गद्हे न घूमें शेर खाल में।

    दीप प्रज्वलित हो बुद्धि-ज्ञान का,
    प्राबल्य विनाश हो अभिमान का,
    बैठा न हो उलूक डाल-ड़ाल में,
    ऐसा होवे नए साल में।

    Wishing you all a very Happy & Prosperous New Year.

    May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!

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  2. वाह . बहुत उम्दा, सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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