चेरो जनजाति और उसका संघर्षशील इतिहास -----?



चेरों जनजाति का राज्य

चेरो जनजाति बाराणसी के पूर्व में उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिला मिर्जापुर में तथा बिहार के रोहतास, किसनगंज, कटिहार जिलों में पायी जाती है, झारखंड में चेरो राजवंश का शासन 300 वर्षों से अधिक समय तक रहा जिसका पलामू दुर्ग आज भी गवाह बना हुआ है जिसके प्रसिद्ध "महाराजा मेदनीराय" थे उनका शासन छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर से लेकर बिहार के औरंगाबाद, उत्तर प्रदेश के सोनभद्र तक फैला हुआ था, बहुत ही सुसंस्कृत संपन्न शासन था इस राजवंश ने मुगलों से लड़कर शासन कायम किया था धर्म की रक्षार्थ लगातार संघर्ष करने की नीति अपनाई तथा मुगल सत्ता से समझौता तो किया, लेकिन स्वतंत्रता को कायम रखा, जब भारतवर्ष 'इस्टइंडिया कंपनी' (ब्रिटिश साम्राज्य) से संघर्ष कर रहा था, उस समय केवल पलामू राज्य ही नहीं सभी जनजातियों के राजा व क्रांतिकारी अपने अपने तरीके से लड़ रहे थे कुछ लोगों का मत है कि "खरवारों" के जैसे ये भी 'सूर्यवंश' से संबंध रखते है लेकिन कुछ इतिहासकारों का मत है कि चेरों वंश 'नागवंशी क्षत्रिय' हैं।

नागवंशी क्षत्रिय कौन

एक किंबदंती है एक राजकुमार 'कश्मीर' के राजदरबार के घुड़साल में काम करता था वह एक योद्धा होने के कारण घुड़साल का भी देखभाल अच्छी तरह से करता था धीरे धीरे उसका सम्वन्ध राजपरिवार से हो गया उस राजा की पुत्री उससे प्रेम करने लगी जब राजा को यह पता चला तो राजा ने पूछा कि यह लड़का कौन है किस खानदान का है उस राजकुमारी ने जब इससे पूछा तो इसने कोई उत्तर नहीं दिया, उसने कहा कि यदि आप मेरे साथ विवाह करना चाहती हैं तो ऐसे ही विवाह करना होगा राजा को तो इतना पता था कि यह किसी न किसी राजवंश से संबंधित है, विवाह करने के पश्चात कश्मीर से वह झारखंड के जंगलों में अपना राज्य स्थापित किया बहुत आग्रह पर भी उसने अपनी पहचान नहीं बताया, उसने कहा कि जिस दिन मैंने अपना वंश बता दूँगा उसी दिन मेरी हत्या हो जाएगी, कहते हैं कि "इन्द्रप्रस्थ" (खांडव प्रस्थ) पर पहले 'नागवंशियों' का शासन था "भगवान कृष्ण" की सहायता से "पांडवों" ने उसे समाप्त कर दिया कहते हैं कि यह बालक उसी 'नागवंश' का था, जब उसके दो तीन बच्चे हुए तब उसने अपना परिचय अपने रानी को दिया,आज भी रांची का जो 'राजवंश' है वह 'नागवंशी' है यह भी सम्भव है कि यह चेरों भी इसी राजवंश का अंग हो।

चेरों जनजाति
यह जनजाति अपने आप को क्षत्रिय होने का दावा करती है, चेरों अपने को "च्यवन ऋषि" के वंशज होने का भी दावा करते हैं ये पूर्वी उत्तर प्रदेश में तथा बिहार, झारखंड में चेरों, चरवा या चेरु के रूप में जाना जाता है यह समुदाय मुख्य रूप से झारखंड के पलामू में केवल जमींदार ही नहीं तो प्रभावशाली शासक था उत्तर प्रदेश के काशी, सोनभद्र में जनजाति में आते हैं झारखंड में चेरों दो उप मण्डल बारह हज़ारी और तेरह हज़ारी है ऐसा लगता है कि वे दो उप राज्य शासन करने हेतु बनाया गया था हज़ारी जो उपाधि दी गई थी दरबार में उसी श्रेणी में बैठने की ब्यवस्था रही होंगी, इनके मुख्य वंशजों यानी राजा के द्वारा नियुक्ति जिसे हम कबीला भी कह सकते हैं मुख्यरूप से मावर, महतों, कुँवर, राजकुमार, माझिया, वामवत और हटिया है।

मुगलों से जीतकर राजवंश की स्थापना
बिहार में चेरों राजवंश के प्रमाण मिलते हैं शाहाबाद, सारण, चंपारण एवं मुज़फ्फरपुर तक विशाल क्षेत्र पर शक्तिशाली राज्य दिखाई देता है, बारहवीं शताब्दी तक चेरों राजवंश का विस्तार काशी से पूर्व पटना तक दक्षिण में गंगाजी नालंदा तक उत्तर में कैमूर तक फैला हुआ था, सतरहवीं शताब्दी में चेरों का राजा मेदनीराय था जो बड़ा ही प्रसिद्ध हुआ उसके मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र "प्रताप राय" राजा बना जिसने 1665 से 1698 तक शासन किया, सतरहवीं शताब्दी तक बिहार में चेरों राजा प्रभावी थे चेरों लोग बड़े ही धर्माभिमानी थे उन्होंने जंगलों में रहता स्वीकार किया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा मुगलों से सतत संघर्ष करते रहे, चेरों के "राजा भगवंत राय" जो एक महान योद्धा थे उन्होंने मुगलों से छीनकर "पलामू गढ़" का निर्माण कराया और एक नए "राजवंश" हिंदू साम्राज्य की 1613 में स्थापना की इस राजवंश ने मुगलों से जीवन भर संघर्ष करते हुए 1630 तक शासन किया 1630 में उनके देहांत के पश्चात उनका लड़का गद्दी पर बैठा उसने 1661 तक लंबे समय तक शासन किया परंतु इस्लामिक मुगल सम्राट से संघर्ष जारी रहा 1662 में "महाराजा मेदनीराय" ने सत्ता सम्हाली और 'राजा मेदनीराय' ने किले का विस्तार किया शासन पद्धति को आगे बढ़ाया वे धर्म रक्षक राजा थे उन्होंने केवल 1662 से 1674 तक अल्प समय तक शासन किया 'राजा प्रतापराय' के समय तीन तीन बार मुगलों ने हमले किया पर हमेशा पराजय का मुख देखना पड़ा, लेकिन इस वंश में सर्बाधिक प्रसिद्ध 'राजा मेदनीराय' हुआ वह युद्ध कौशल में विशारद था न्याय प्रिय था अपने राज्य की जनता को सुखी और संपन्न रखता था आज भी "राजा विक्रमादित्य" के समान पलामू के क्षेत्र में "राजा मेदनीराय" की कहानियां गांव- गांव में चलती है दुर्भाग्य ऐसा है कि देश आज़ादी के पश्चात ऐसे इतिहास को वामियों, सेकुलरों ने समाप्त करने का काम किया।

स्वतंत्रता संग्राम में "चेरों वंश"
मुगलों भारत के विभिन्न राजाओं से समझौता कर अपनी सत्ता कायम कर रहे थे लेकिन ये जिन्हें हम आज वनवासी, गिरिवासी अथवा जनजाति कहते हैं ये कोई सामान्य लोग नहीं थे वे बड़े ही स्वाभिमानी लोग थे मैदान पर पराजित होकर भी गुलामी स्वीकार न करते हुए अपने धर्म संस्कृति की रक्षा करते हुए वनों की ओर बढ़ गए और स्थान स्थान पर शासन यानी राज्यों की स्थापना की उसी संघर्ष का परिणाम चेरों राजवंश और उनका राज्य था, जब स्वामी दयानंद सरस्वती ने पूरे देश में घूम घूम कर राजाओं का जागरण किया ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष का क्रांतिकारियों ने आह्वान किया उस समय जिस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई से लेकर वीर कुंवर सिंह तक ने अपने जान की बाज़ी लगा दी उसी आह्वान पर चेरों राजवंश भी इस राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा चाहे विरसा मुंडा हो या सिद्धू, कानू ये सभी उसी समय ससत्र आंदोलन में कूद पड़े कहते है कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी क्रांतिकारी नीलाम्बर, पीताम्बर का भी सम्वन्ध इसी चेरों राजवंश से था।

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7 टिप्पणियाँ

  1. यानी भारत के अंदर मौजूद सभी जनजातियाँ क्षत्रिय कुल के रहे होंगे, जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया। हिन्दू समाज को इनके इतिहास के बारे में जानना बेहद आवश्यक हैं भाई साहब...!

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  2. चेरो जनजाति में कोन कोन सा जाति होते हैं ?

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    1. ये जाति हिंदू राजपुत की जाती है जो चवन ऋषि का संताने है.. इनका गोत्र चेर है.. बोल चाल के भासा में चेरो लोग बोलते है.. ये जाति बहुत चालाक और होसियार जाति होते है.. जब भारत में संविधान लागू हुआ तो ये cher लोग आपस में बैठक कर आदीवासी बनने का निर्णय लिया चुकी इनको पहले से पता था कि अब राजा का समय कभी नही आने वाला चुकी झारखंड में बहुत से जनजाति हुआ करते थे जो की इनकी सेना में सैनिक के रूप में योगदान देते थे.. उसी को देखते हुए दिल्ली में एक महीना के लिए धरना देकर आदिवासी में जाने का फ़ैसला किया

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  3. धन धन मेदनिया घर घर बाजे मथनिया ।जय भवानी जय जय मेदनिया

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