दिग्विजयी ऋषि दयानंद - भाग -३

1857 का स्वतंत्राय समर


कुछ अंग्रेज भक्त व उनके चाटुकार तथा वामपंथी इतिहासकारों ने इस स्वतंत्रता संग्राम को एक्सीडेंट बताने का प्रयत्न किया तो कुछ इतिहासकारों ने इसे बिद्रोह करार दिया वे लोग वास्तविकता को दबाने का प्रयत्न किया लेकिन वास्तविकता कहीं छिपाई नहीं जा सकती, भारतवर्ष के स्वतंत्रता के लिए लंबे समय से प्रयत्न चल रहा था पिछले पृष्ठों में यह बताया है कि 712 में जब मुहम्मद बिन कासिम का हमला सीमा राज्य के राजा महाराजा दाहिरसेन के ऊपर हुआ था वास्तव में यह संग्राम उसी समय से चल रहा है उस समय के स्वतंत्रता सेनानी थे बप्पा रावल से लेकर महाराणा प्रताप, राणा राजसिंह तक तो दक्षिण में समर्थगुरु रामदास, क्षत्रपति शिवाजी महाराज, संभाजी राजे तो बुंदेलखंड के वीर राजा बुंदेला वीर क्षत्रसाल ऐसे अनेक राजा महाराजाओं ने इस स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखा जहाँ एक ओर राजा महाराजा युद्धरत थे वहीँ साधू सन्यासियों ने बिना समय गवाएं ही समाज जागरण का काम किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बहुत ही बुद्धिमत्ता से सारे राजे- महाराजाओं के अंदर चेतना भरकर उनको तैयार किया उसकी समय तिथि तय की गई कौन नेतृत्व करेगा यह सब तय था ऐसा नहीं था कि गाय और सुवर की चर्बी का भ्रम भी फैलाया नहीं गया यह भी एक हथियार के रूप में प्रयोग किया गया लेकिन यह कहना कि इसी कारण बिद्रोह हुआ यह पूरी तरह सत्य नहीं हो सकता क्योंकि यह योजना एक लंबे समय से चल रही थी।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी का उद्घोष मंत्र था "ईश्वर आज्ञा है कि स्वराज्य प्राप्त करो, क्योंकि स्वधर्म रक्षण का वह मूल साधन है जो स्वराज को प्राप्त नहीं करता, जो गुलामी में तटस्थ रहता है वह अधर्मी एवं धर्मद्रोही है, इसलिए स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो"। 'स्वधर्म के लिए उठो और स्वराज्य प्राप्त करो'--इस तत्व ने हिंदुस्तान के इतिहास में कितने दैवी चमत्कार किये हैं? श्री समर्थ रामदास ने महाराष्ट्र को ढाई सौ वर्ष पहले यही दीक्षा दी थी-- "धर्मसाठी मरावे। मरोनि अवध्यानसि मारावे। मारिता मारिता ध्यावे। राज्य आपुलें"।
भारतवर्ष केजितने राजे-राजवाड़े थे सभी मे यदि अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने की इक्षा हो गई तो एक क्षण में अपनी बसुंधरा अपने पास होगी, यह तथ्य स्वामी जी के ध्यान में पहले ही आ गया था, यह समझकर ही अंग्रेज एक के बाद दूसरी रियासत छीनते जा रहे थे इसी वास्तविकता को सारे रजवाड़ों में स्वामी जी के सहयोगी सहकारी पहुचाने का काम कर रहे थे, कोल्हापुर तथा दक्षिण के रियासतों अयोध्या, दिल्ली, मैसूर आदि राजधानियों में नाना के दूत और उनके पत्र सारे देश को स्वतंत्र ता युद्ध के लिए चेतना देते हुए घूम रहे थे, अंग्रेजी सत्ता स्वराज्य व स्वधर्म की छीछालेदर कर रहे थे, जो रियासतें आज जीवित हैं वे कल किस तरह नामशेष होने वाली हैं यह स्पष्ट मार्मिक रीति से जनता के मन में भरते हुए साधू सन्यासी सारे हिंदुस्तान में विचरण करने लगे।

बिस्फोट

वास्तविकता यह है कि हिन्दू समाज लम्बे समय से लड़ते लड़ते कुछ रुककर समय और मौके के इंतजारमें था और साधू संत स्थान स्थान पर अपने प्रवचनों में देशभक्ति आज़ादी की बात करने लगे थे स्वामी दयानंद की यह उद्घोषणा की बिना स्वराज्य के स्वधर्म सम्भव नहीं हो सकता यह सबके सिर पर चढ़कर बोलने लगा, "हर क्रान्ति की नींव में कोई न कोई तत्व होना ही चाहिए" आखिर वह तत्व क्या था तो वह तत्व तो भारतवर्ष की आध्यात्मिकता, राष्ट्रीयता के अतिरिक्त कुछ नहीं था, जो लोग बिद्रोह कह रहे हैं उन्हें क्या कहा जाय या तो वे बुद्धिहीन हैं या अधिक बुद्धिमान, 1857 जैसी प्रचंड क्रान्ति ऐसे कारणों से उत्पन्न होगी यह कहने वाले मंद या कुटिल बुद्धि के लोगों को क्रान्ति एक अविवेकी मूर्खो का समाज लगता है, लेकिन इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यदि 1857 की क्रांति मुख्यतः करतूसों के कारण ही प्रदीप्त हुई तो उसमें नाना साहब पेशवा, दिल्ली का बादशाह, झांसी की रानी या रुहेलखंड का खानबहादुर, बिहार के वीर कुंवर सिंह कैसे सम्लित हुए। स्वदेश रक्षा, स्वराज्य स्थापना एवं स्वधर्म परित्राण के लिए दिल्ली सिंहासन से प्रार्थित इस स्पष्ट दिव्य एवं स्फूर्तिजनक मंत्र में ही सन 1857 की क्रांति बीज है। अंग्रेज 1857 के प्रारंभ में ही सैनिकों की चिट्ठियां खोलना शुरू कर दिया था, उन पत्रों में से एक पत्र हिंदुस्तान के लोगों की शक्ति के बारे में कहता है-- "विदेशियों को हम सिर पर चढ़ाये हुए हैं! यदि हम उठें तो फिरंगियों के मुट्ठी भर लोगों को तलवार के एक झटके में गारद कर सकते हैं कलकत्ते से पेशावर तक मैदान साफ है"। यह स्वतंत्रता संग्राम एक दबे हुए ज्वालामुखी के समान था जिसमे लौ सुलगाने का काम ऋषि दयानन्द सरस्वती ने किया। 1857 जनवरी में निम्न घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ-- "है देशबन्धुओ और धर्मनिष्ठों उठो! अंग्रेजों को अपने देश से भगा देने के लिए सारे उठो! इन अंग्रेजों ने न्याय के सारे सिद्धांत मटियामेट कर दिये हैं, उन्होंने हमारा स्वराज लूट लिया है और स्वदेश को धूल में मिलाने का दृढ़ निश्चय किया है, अब एक ही उपाय शेष रह गया है और वह उपाय है तुमुल युद्ध करना, ऐसे युद्ध में जो युद्ध मैदान में खेत रहेंगे वे अपने देश के हुतात्मा होंगे, तभी बैरकपुर से सियालकोट जैसे दूर भेजे गए पत्र पकड़े गए थे उनमें एक मे बैरकपुर के सिपाही सियालकोट के सिपाहियों को लिखते हैं- "भाइयों, शत्रुओं के विरुद्ध उठो!"
1857 के क्रन्तियुद्ध के इतिहास में एक आश्चर्यजनक बात थी उसकी परम गोपनीयता, पूरे युद्ध की रचना गुप्त रूप से हुई, सारे हिंदुस्तान में क्रान्तिरचना का दौर चलते हुए भी अंग्रेजों जैसे धूर्त राज्यकर्ताओं को उस बिद्रोह की इतनी कम जानकारी मिल पाई कि प्रत्यक्ष विद्रोह होने के एक वर्ष बीत जाने के बाद भी अंग्रेजों के अनेक अधिकारियों को विद्रोह का प्रमुख कारण कारतूस ही लगता था, 1857 के भयंकर युद्ध में स्वदेशाभिमान और स्वधर्माभिमान का पवित्र स्फुरण उन योद्धाओं में कैसे संचरित हुआ था यह स्पष्ट रूप से कुछ इतिहासकार धीरे धीरे अब स्वीकार करने लगे हैं।

स्वतंत्रता की वेदी पर

सिपाहियों में आग सुलगते देर नहीं लगी पहले 19वी बटालियन पर प्रयोग ऐसा रंग दिखाई देने लगा, बंगाल में फरवरी माह में सारी पलटनों की अपेक्षा 34वी पलटन राज्यक्रांति के लिए अधिक उत्सुक हो गई, इसका मुख्यालय बैरकपुर में होने से शपथपूर्वक क्रान्ति के लिए जुड़ गया था, 19वी और34वी पलटन कंपनी की नौकरी से लात मारकर बाहर जाने की इक्षा थी देश भर में सैनिक ठिकानों पर एक समय के पात्र भेजा था लेकिन, लेकिन मंगल पांडेय की तलवार को धीरज कौन बधाए, मंगल पांडेय ब्राम्हण कुल में जन्म लिया था क्षात्रधर्म में दीक्षित हट्टा-कट्ठा जवान था, स्वधर्म पर प्राणो से अधिक निष्ठा रखने वाला था फिर उसकी तलवार कैसे धीरज रखे। उसने लपककर अपनी बंदूक उठायी "जो मर्द हो वो उठो" ऐसी गर्जना करते हुए मैदान में कूद पड़ा" अरे अब क्यों पीछे रहते हो ? भाईयो, आओ टूट पड़ो, तुम्हें तुम्हारे धर्म की सौगंध है। चलो अपनी स्वतंत्राय के लिए शत्रु पर टूट पड़ो। उधर सार्जेंट के आदेश से एक भी सिपाही अपने स्थान से हिला नहीं उधर मंगल पांडेय की बंदूक से उस सार्जेंट का शव जमीन पर आ टपका मंगल पांडेय को गोली भरने का अवसर मिलता की लेफ्टिनेंट न रिवाल्वर निकाल लिया, पांडेय ने समसीर निकाली एक ही वार में वह धरासायी हो गया, मंगल पांडेय ने फिरंगियों के हाथ लगने की अपेक्षा मौत स्वीकार किया और अपने ही बंदूक को अपनी ओर किया वे हमेशा के लिए 22मार्च 1857 को स्वतंत्रता की वेदी पर चले गए।

सभी सैनिक छावनी में विद्रोह

अब कौन इंतजार करता 31 मई का यह समाचार आग की तरह पूरे देश में, सभी पलटनों में, सभी क्रांतिकारियों में फैल गई दिल्ली की 54वी पलटन ने विद्रोह कर दिया, मेरठ छावनी में विद्रोह हुआ मेरठ में नारा लगा-- फिरंगी राज्य का नाश हो और स्वराज्य की जय हो, के नारे लगने लगे, अलीगढ़, नसीराबाद जगह जगह बिद्रोही स्वर उभारने लगे, रुहेलखंड में सिपाही स्वतंत्रता की वेदी पर समर्पित हो इंतजारकी घड़ी कैसे कटे 30 मई निकल गया 31 का सूर्य ऊगा ही था- ''कैप्टन ब्राऊन लो'' के घर एका-एक आग लग गई इससे अंग्रेजों के मन में भय ब्याप हो गया था दिन रविवार था अंग्रेज धोके के शिकार हुए, इस तरह पूरा रूहेलखंड बिद्रोह कर दिया बरेली, शाहजहांपुर, मुरादाबाद, बदायूं आदि जिलों में 2घंटे में ही सेना, पुलिस क्रांतिकारियों ने सीमा के बाहर निकल दिया, ब्रिटिश झंडा उतार कर भगवा झंडा फहरा दिया, सन्यासियों ने आवाज दिया-"इस धर्म-युद्ध में जो स्वयं लड़ेगा या दूसरों के लड़ने के लिए सहायता प्रदान करेगा वह पारमार्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करेगा। आग फैलती बनारस, इलाहाबाद पहुंची, कोलकाता से 400 किमि दूर गंगाजी के किनारे अपने धार्मिक वैभव से ओत-प्रोत ''काशी'' गंगा घाट पर एक पर एक चढ़ते शिखर उन पर स्वर्ण मुकुटों से चमकते ऊंचे ऊंचे मंदिरों के शिखर विभिन्न मंदिरों में बजते हज़ारों घंटो का स्वर एक दूसरे से मिल रहे थे ''श्रीकाशीविश्वनाथ'' काशी की सोभा बढ़ा रहे थे। काशी से 60 किमी दूर आजमगढ़ में 17वी रेजिमेंट में 31 मई को खलबली मचने लगी विद्रोह--! शान्ति भाषण अंग्रेजी अधिकारी देने लगे, आजमगढ स्वतंत्र होने का समाचार काशी पहुचा अब अंग्रेज सिक्ख रेजिमेंट के उपयोग का विचार करने लगे, इस प्रकार 3 जून को आजमगढ़, 4 को बनारस, 5 को जौनपुर के उठते ही सारा प्रान्त क्रान्ति की ज्वाला में भड़क उठा।

गंगा का मैदान 

अब यह रक्त प्रवाह गंगाजी के मैदान को पूरे आगोश में ले लिया था 'नाना साहब' और झांसी की 'रानी लक्ष्मीबाई' सभी स्वतंत्रता की वेदी पर होम के लिए तत्पर थे, श्रीमंत नाना साहब पेशवा के बाड़े में मेरठ बिस्फोट के समय जितने कार्यकर्ता उपस्थित थे उतना लखनऊ के राजमंदिर में, बरेली में या दिल्ली में कठिन था, स्वतंत्रता की देवी को रामायण और महाभारत के पारायण सुनाए जा रहे थे। वहीं दो सिंह सावक अपनी मातृभूमि के लिए इकट्ठा लड़े, जो उनकी प्रशिक्षण शाला थी उसमें नाना साहब, तात्या टोपे, छबीली जैसे साथ साथ शिक्षा लेते थे। कानपुर में अंग्रेजी सैनिक और अधिकारियों का डेरा था वहीं नाना साहब का अपना शिविर था, कानपुर में विप्लव होते ही पहला हमला खजाने पर होगा तो उसकी सुरक्षा की ब्यवस्था-? फिर खजाना, बारूद खाना और शस्त्रागार सभी नाना के पास और अंग्रेजों की सारी महिलाएं ब्रम्हावर्त के रराजमहल में, इसी को मराठी दांव बोलते हैं। 28जून को कानपुर से अंग्रेजी शासन का पूर्ण निर्मूल हो जाने के पश्चात शायम 5 बजे नाना साहब ने एक विशाल दरबार आयोजित किया श्रीमंत नाना साहब की सवारी मैदान में आईं यह देखते ही सबने महाराज के जय जय कार की, और उन्हें 21 तोपों की सलामी दिया यह लड़ाई 21 दिन की थी इसलिए21 तोपों की सलामी दी गई।

खूब लड़ी मर्दानी

झांसी की सेना राजनिष्ठा रहेगी या अंग्रेजों के साथ, एक जून को झांसी में कुछ अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों में आग लगा दी गई यह आग जून के पहले सप्ताह को इतना शंदेश देकर निकल गई चार जून कानपुर झांसी दोनों एक साथ उठ खड़ा हुआ। पाच जून को झाँसी ने स्वतंत्रता संग्राम में कूद गया और आठ जून को अंग्रेजी सत्ता का अंत हो गया और महारानी लक्ष्मीबाई को झाँसी के स्वतंत्र सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया गया महारानी लक्ष्मीबाई के जयकारे गूँजने लगे "शासन लक्ष्मीबाई का"।
लहू मेघ की तरह वर्षा ओलों के साथ दिल्ली के घेरे, प्लासी का प्रतिशोध, कानपुर, लखनऊ,, सिकंदराबाद के कत्ल, सहस्त्रों क्रांतिकारी जूझ रहे हैं, नगर जल रहे हैं, कुँवर सिंह आता है लड़ता है जूझता है गिरता है साधू और सन्यासी आये और लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए झाँसी, बरेली, बाँदा, फरुखाबाद के सिंहासन पांच हजार, दस हजार, सहस्त्रों, लाखों तलवारें, ध्वजाएं, सेनापति, घोड़े, हाथी, ऊंट-सबके सब एक के बाद एक अग्नि के फौवारे से निकलते हैं, कुछ ऊचाई पर लपट दूसरी तरफ कुछ और ऊंचे चढ़ जाते हैं लड़खड़ाते हैं और लुप्त हो जाते हैं सब ओर युद्ध ही युद्ध-- और यह चिता--बाबा गंगादास की झोपड़ी के पास जल रही है, 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के ज्वालामुखी की यह अंतिम ज्वाला है।

ग्वालियर

क्रांतिकारी पहुचते कि उसके पहले गुप्त सन्यासी संगठन जिसका नेतृत्व स्वामी दयानंद सरस्वती कर रहे थे पहुंच जाया करते थे, जनता स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ हो जाया करती थी, ग्वालियर की प्रजा को अपनी ओर कर लेने में सफल हो तात्या टोपे के आ पहुचने का समाचार सुनकर रानी को बहुत प्रसन्नता हुई और उसने पेशवा से सीधे चढ़ाई करने का आग्रह किया, 28 मई को क्रांतिकारी अमिनमहल पहुंचे, लंबरदार ने उन्हें रोकना चाहा उत्तर मिला तुम कौन हो हमें रोकने वाले-? हम पेशवा हैं और स्वराज्य व स्वधर्म के लिए लड़ रहे हैं श्रीमंत रावसाहेब के इन शब्दों से कायर चुप हो गया और वहां के हज़ारों देशभक्तों ने क्रांतिकारियों का हृदय से स्वागत किया तब पेशवा ग्वालियर की दीवार से टकराया, रानी लक्ष्मीबाई ने अपने तीन सैनिकों के साथ सिंदे के तोपखाने पर धावा बोल दिया छेड़ी हुई नागिन की भांति क्रोधातुर 'महारानी लक्ष्मी' उन पर टूट पड़ी, महादजी सिंदे के शूर वंशज जयाजी, रनिवास में पड़ी यही बाइस वर्ष की अबला तुम्हारी तलवार को ललकार रही है, ग्वालियर की सेना ने तात्या टोपे को देखा और सपथ का स्मरण कर क्रांतिकारियों के खिलाफ लड़ने से इनकार कर दिया, मुख्य सेनाधिकारियों के साथ सेना ''रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे'' के साथ हो गई, ग्वालियर का हर सैनिक स्वराज्य के भगवे झंडे को प्रणाम किया।

युद्ध 712से ही

स्वामी दयानंद सरस्वती इस स्वतंत्रता संग्राम के बारे में कहते थे कि अन्य राष्ट्रों के इतिहास में ऐसा बिरोध अपवाद में ही दिखाई देता है यह युद्ध पाँच सौ वर्षों से अधिक समय से चलता रहा इन विदेशी आक्रमणकारियों से स्वयं जन्मसिद्ध अधिकार के लिए हिन्दुओं ने पाँच शताब्दियों से अधिक समय संरक्षणात्मक युद्ध चालू रखा, सम्राट पृथ्वीराज से लेकर औरंगजेब की मृत्यु तक समझौते और संधियों की परवाह न करते हुए युद्ध के पश्चात युद्ध चलता रहा इसीमें दक्षिण में एक नयी शक्ति का उदय हुआ अपने हिन्दू स्वाभिमान की रक्षा के लिए जिन हज़ारों हिन्दुओ ने बलिदान दिया उनके सम्मान की परिपूर्णता का संकल्प नई हिन्दू सत्ता ने अपने साथ लिया पुणे के एक हिन्दू भाऊसाहब पेशवा 'समर्थ सेना' के साथ आक्रमण करते निकला उसने दिल्ली के सिंहासन पर कब्जा किया, हिंदुस्तान की गुलामी उतारकर हिन्दू भूमि के हिन्दू ही पुनः मालिक हुए।

जब पूरा उत्तर भारत खड़ा हो गया

कानपुर पर आक्रमण करने आ रही अंग्रेजी सेना को 'पांडु नदी' पर रोके लेने के लिए नाना साहब के अधीन एक सेना टुकड़ी को भेजने के लिए नाना का दरबार उठता है तो कुछ दगाबाज पकड़े जाने का समाचार मिला वहीँ से ध्यान में आया कि गड़बड़ है।पांडु नदी पर स्वतंत्रता की सेना का पराभव, सेनापति बालासाहेब पेशवा के कंधे में गोली लगी, नाना साहब ने तुरंत कानपुर वापस लौट दरबार बुलाया कानपुर छोड़े या युद्ध मैदान में चले इन दोनों मुद्दों पर सभा में चर्चा हुई मैदान में युद्ध का चयन--! अब कानपुर शहर को लूटने का आदेश, हज़ारों सेना अधिकारी सिक्ख सैनिक टूट पड़े। कानपुर पराजय के पश्चात नाना साहब ब्रम्हावर्त से खजाना, शस्त्र लेकर गंगाजी पार कर गए, अंधियारा हो जाने पर नौकाएं सज्जित कर उपयुक्त समान रखने के बाद बालासाहेब आदि को बिदाई देने के लिए हजारों नागरिक गंगा तीर पर जमा थे उन सबको नौका चलने के पहले विनम्रता से नमस्कार कर किंचित भावविह्वल हो श्रीमंत बालासाहेब ने कहा कानपुर में जब हम हारे उस समय तात्या टोपे, जलका भाऊ आदि हमारे सरदार कहाँ गए कुछ पता नहीं पर वे सूर हैं, अतः हमें इसकी चिंता नहीं, आपको छोड़कर जाना अवश्य हमारे लिए कठिन हो रहा है, ''हिन्दू धर्म'' के लिए और ''हिंदू राज्य'' के लिए एक बार फिर प्रयास करने होंगे, इस हेतु ईश्वर ने यह शंकट हमारे कारण दिया है उसके लिए कृपया हमे क्षमा करें। अंग्रेजी सेना ने ''ब्रम्हावर्त राजमहल'' को ध्वस्त कर दिया और ''अयोध्या'' की ओर चल दिया, नाना की खबर नहीं पाने से अंग्रेजी सेना लखनऊ की ओर चली गई।

1857 और बिहार

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जहाँ पूरा भारत लड़ा वहीं "बिहार" को कमतर नहीं आंका जा सकता है, "पटना साहिब गुरुद्वारा" ने इस संग्राम में अपनी छवि को निखारने के काम किया उन्होंने (ग्रंथी) कहा "कोई भी केश रख लेने से गुरू तेगबहादुर का अनुयायी नहीं हो सकता उसके लिए देश व धर्म के लिए बलिदान की आवश्यकता होती है," वहीं 23 अप्रैल को अंग्रेजी सेना को धोबिया पछाड़ देकर उस बृद्ध 80 वर्ष के युवा "राणा कुँवर सिंह" ने अपने "जगदीशपुर" के राजमहल में विजयश्री के साथ प्रवेश किया, उनका यह अंतिम प्रवेश था क्योंकि विश्व के रंगमंच पर अब कुँवर सिंह नहीं प्रकट होगा, जब वे गंगाजी को पार कर रहे थे उसी समय अंग्रेजी सेना से टकराव हुई उनके हाथ में गोली लगी वे धर्माभिमानी भी थे उन्हें ध्यान में था कि कारतूस में गाय की चर्बी लगी हुई है तुरंत उन्होंने बिना देर किए अपने तलवार से अपने हाथ को गंगाजी को समर्पित कर दिया, घाव बढ़ जाने के कारण उचित समय पर चिकित्सा उपलब्ध नहीं होने से वह 'राजपूत कुलकीर्ति' ''राणा कुँवर सिंह'' इस विजय के तीसरे दिन 26 अप्रैल को अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित राजमहल में स्वतंत्रता के झंडे के नीचे चिन्मय रूप से लीन हो गए, जब उनका जन्म हुआ था तब उनकी जन्मभूमि स्वतंत्र थी और उनका प्राणोत्सर्ग भी स्वतंत्रता के झंडे के नीचे हुआ, जिस दिन उनका स्वर्गारोहण हुआ उस दिन तक जगदीशपुर के राजमहल पर अंग्रेजों का निशान नहीं उनके स्वदेश एवं स्वधर्म का स्वतंत्राय ध्वज ही फहरा रहा था, किसी राजपूत के लिए इससे अधिक पुण्यतर मृत्यु और कौन सी हो सकती है।

और हम पराजय की ओर

सिख धर्म के मतावलंबियों ने जो ब्रिटिश सेना में थे वे हिन्दू सेना के विरोध में खड़े दिखाई दिए उन्हें लगता था कि दिल्ली के बादशाह की पराजय गुरुओं की जीत होगी उन्होंने समझने में गलती कर दिया वह यह नहीं समझे कि यह आत्मघाती कदम होगा, सिख नेता पटना में आते ही बिद्रोह की चिनगारी फैलने लगी, उधर गुरुद्वारा साहिब के ग्रंथि ने इन शिखों को गुरुद्वारे में आने से रोक दिया और कहा, विदेशी सत्ता को प्रणाम करने वाले प्राणी सिर पर बड़ा केश रख लें तो भी वे गुरू गोविंद सिंह के अनुयायी नहीं हो सकते ऐसा विस्वास उस सिख धर्म के गुरू का हो गया था, इससे स्वधर्म और स्वाराज इन दोनों सिद्धांतों का पटना शहर उत्कृष्ट उदाहरण है। एक दूसरा उदाहरण हिन्दुद्रोह का-- नेपाल के राजा स्वतंत्रता के पक्षधर थे उस समय भारतीय राष्ट्र में हिमालय के दक्षिण का भाग भारतवर्ष माना जाता था नेपाल नरेश स्वतंत्रता संग्राम में स्वयं थे लेकिन जंगबहादुर राणा षड्यंत्र कारी था उसे राजा को धोखा देकर गद्दी हासिल करनी थी। जंगबहादुर राणा उनके सेनापति थे उसने ब्रिटिश की यात्रा में महारानी विक्टोरिया से भेंट की और राजा से विद्रोह किया, बड़ी योजनाबद्ध तरीके से राजा को तीर्थ यात्रा के लिए काशी भेज दिया, काशी में अंग्रेजी सेना ने राजा को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें तब तक रखा जब तक जंगबहादुर राणा ने पूरी तरह से नेपाल पर कब्जा नहीं कर लिया।

मक्कारी की भी सीमा

अब राजा काशी से छूट कर काठमांडू पहुंचे थे कि राजा और राणा में युद्ध हुआ राजा को गिरफ्तार कर लिया कुछ लोगों का मत है कि राजा बिहार में आ गया अब वह की जनता को खुश करने के लिए उसी वंश के एक बालक को राजा बनाया एक समझौते के तहत राजा श्री5 और राणा श्री3 हो गया श्री3 का अर्थ था कि राणा प्रधानमंत्री भी और सेनाध्यक्ष भी यह परंपरा 1950 तक कायम रही, राणा जंगबहादुर अंग्रेजों से 3 हज़ार की सेना लेकर मिल गया और लखनऊ की लूट तथा पूर्व के हिसे में अंग्रेजों की सहायता की, इसके बदले अंग्रेजों ने पश्चिम के चार जिला बांके, बर्दिया, कंचन पुर और कैलाली जंगबहादुर राणा को इनाम में दिया। अब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम में तत्काल हिन्दू पराजित हो चुके थे, 1857के क्रांति की असफलता के लिए दोषी वे हैं जिन्होंने अपने प्रमाद, स्वार्थपरता, आलस्य और विस्वासघात से इस पर मर्मान्तक प्रहार किया जिन्होंने संग्राम किया उन क्रांतिकारियों को दोषी ठहराने का दुस्साहस किसी को नहीं करना चाहिए, एक कटु सत्य यह भी है कि सिख रेजिमेंट और गोरक्षा रेजिमेंट दोनों ने यदि अपना परिचय स्वराज व स्वधर्म का दिया होता तो परिणाम कुछ और हो सकता था। लेकिन ऐसा नहीं था कि स्वतंत्रता संग्राम बंद हो गया वह तो आज़ादी तक चलता रहेगा ऐसा संकल्प-! स्वामी दयानंद सरस्वती व गुप्त सन्यासियों की टोली इस असफलता से निराश नहीं हुए उन्होंने ब्यापक विचार करने का संकल्प लिया और सम्पूर्ण देश को स्वराज्य व स्वधर्म के प्रति प्रत्येक हिंदू मन में आग दहकाने के संकल्प को दुहराया---।