और अब भाषा, लिपी के द्वारा सनातन वैदिक धर्म पर हमला।

 भाषा विज्ञान शोध 

भाषा विज्ञानी अपने-अपने सोधों के द्वारा यह सावित करना चाहते हैं  कि देवनागरी लिपि कोई सातवीं शताब्दी की हो सकती है! कोई शोधकर्ता कहता 1400 वर्ष पुराना हो सकता है ये जितने शोधकर्ता हैं वे किसी भी कीमत पर "ईशा" के पहले नहीं जाना चाहते क्योंकि यदि वे ईशा के पहले गए तो फिर ईशा.. मूशा का क्या होगा-? वे किसी भी शोध को ईशा से पुराना नहीं होने देना चाहते वे दुनिया को ईशा के आस पास ही रखना चाहते हैं। मैं वेदों की बात करना चाहता हूँ मैं ऋषि दयानंद सरस्वती की बात नहीं कर रहा जिन्होने यह सिद्ध किया कि वेद एक अरब छानबे करोड़ आठ लाख वर्ष पुराना है। मैं लोकमान्य तिलक की बात कर रहा हूँ वे वेंदो की रचना को मात्र दस हजार वर्ष ऐसे मैक्समूलर छः हज़ार वर्ष मानते हैं और वेद देवनागरी लिपि में लिखा गया है। अब ये नए प्रकार का शोध है जो देवनागरी लिपि को 1400 वर्ष से पीछे नहीं ले जाना चाहते। ऐसे ही ''सूर्यग्रहण'' व ''चंद्रग्रहण'' के बारे में है जब भी 'ग्रहण' लगता है तो हमारे आकाशवाणी व दूरदर्शन सभी "नाशा" के द्वारा निर्धारित समय पर प्रसारित करते हैं। नाशा की स्थापना पचास के दशक में हुआ है हमारे यहाँ यह ग्रहण हजारों लाखों वर्ष पहले से धार्मिक आधार पर काशी का पंचांग बताता है। आज भी काशी के पंचांग और नाशा के समय निर्धारण में कोई अंतर नहीं होता है तो क्या यह मान लिया जाय कि इस ''ग्रहण'' का ज्ञान हमारे लोगों को नाशा की स्थापना के पश्चात हुआ ?

पश्चिमी और भारतीय ज्ञान

हम लोग इन सब बातों को कब तक समझेंगे ? कब मानेंगे-? ये पश्चिम के लोग 'ईशा' के पहले के किसी महापुरुष को मानने को तैयार नहीं है विभिन्न प्रकार का फर्जी शोध करके उस काल गणना को झुठलाना चाहते हैं। जबकि ''कांची कामकोटि'' व ''पुरी'' की पीठ में आज भी शुरू से अभी तक सभी शंकराचार्यों की सूची विद्यमान है जो यह साबित करती है कि शंकराचार्य का कालखंड 2500 वर्ष पहले का है। ऐसे ही ''पुरुषोत्तम श्री राम'' को काल्पनिक बताने का असफल प्रयास किया गया जबकि सम्पूर्ण भारत मे वे कहाँ कहाँ गए उसके तथ्य मौजूद हैं, इसी प्रकार 'महाभारत' के बारे में भी है। जबकि सम्पूर्ण भारत वर्ष में आज भी वे सारे स्थान है जहाँ जहाँ 'पांडव' गए जहाँ जहाँ ''भगवान श्री कृष्ण'' गए आज भी महाभारत का युद्ध स्थल साक्ष्य के रूप में गवाही दे रहा है। चाहे 'बौद्धों' के नए संस्करण के रूप में 'बामपंथी' हो चाहे 'ईशा -मूसा' की संतान हों सभी भारतीय वांग्मय, भारतीय संस्कृति को लेकर परेशान हैं । वे "महर्षि मनु" से लेकर 'सम्राट बिक्रमादित्य' के कालखंड, वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ, रामायण और महाभारत को फैक (झूठ) बताने में लगे रहते हैं। उन्हे लगता है कि इनसे पहले दुनिया थी ही नहीं हमी सभ्य थे और सभी असभ्य थे जबकि सत्य कुछ और है! अंग्रेज जब भारत में आये तब उन्हें सही काल गणना का ज्ञान हुआ, नहीं तो उनके यहाँ केवल 10 महीने का ही वर्ष होता था। भारत में आने से पहले उनके यहां शौच करके धोने की कल्पना नहीं थी पैलोथिन में ही शौच करके रख बाहर फेंक दिया करते थे और सभी "सुवर" पालते थे बाद में सुवर उस गंदगी को खा जाता था, तब ये ब्रिटिश लोग घर के बाहर निकलते थे इसलिए इनके यहां "सन राईज" और "सन सेट" यानी सूर्योदय और सूर्यास्त  देखने की कल्पना की।

पाणिनी और ब्याकरण

ईशा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी ने ब्याकरण लिखा, ब्याकरण यानी 'शब्दकोष की परिभाषा', ब्याकरण उसे कहा जाता है जिससे भाषा को शुद्ध पढ़ा, बोला और लिखा जाता है। किसी भी भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने के नियम को ब्याकरण कहते हैं। कुछ लोगों का मत है कि पाणिनी ईशा पूर्व सातवीं शताब्दी में संस्कृत भाषा के सबसे बड़े ब्याकरणाचार्य हुए इसका अर्थ यह हुआ कि वे ईशा पूर्व सातवीं शताब्दी में हुए थे, कुछ का मत है कि वे ईशा पूर्व पांच सौ वर्ष पूर्व हुए। इनका जन्म गंधार प्रदेश यानी बर्तमान के अफगानिस्तान में हुआ था इनके पिता का नाम पाणिन और माता का नाम दाक्षी था। इनकी मुख्य रचना 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ है जिसमें मुख्यतः आठ अध्याय है और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। जिसमें चार सहस्त्र शूत्र है, जो अष्टाध्यायी की कसौटी पर खरा नहीं उतरता उसे विद्वानों ने 'अपठनीय' कहकर असुद्ध घोषित कर दिया करते थे, संस्कृत भाषा को ब्याकरण सम्मत रूप देने मे पाणिनी का योगदान अतुलनीय माना जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि देवनागरी लिपि कम से कम पाणिनी के पहले की है।

वैदिक भाषा-वेद स्वतः प्रमाण

ईशा पूर्व 250 वर्ष पहले सम्राट अशोक हुआ उनके शिलालेख "पिपरहवा" में "ब्राम्ही लिपि" में पाया गया है, ब्राम्ही, प्रकृत और वैदिक भाषा यह एक ही कुल की है, दूसरा विश्व के विद्वानों ने ''वेद'' को विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ स्वीकार किया है और भारतीय मनीषा 'लोकमान्य तिलक' ''वेदों'' को दस हजार वर्ष पुराना मानते हैं जो वैदिक (संस्कृत) भाषा में है। विश्व के सारे शोध चर्च, मदरसा और वामपंथियों के "स्कूल ऑफ थाट" से प्रायोजित रूप से हो रहे हैं। अब इन्हें भारत, भारतियता तथा भारतीय ग्रंथों व भारतीय संस्कृति का पुराना वैभवशाली अतीत पच पा नहीं रहा है। इसलिए इनके सारे शोधकर्ता यह प्रयत्न करते रहते हैं कि इस प्रकार का कोई शोध दो हजार वर्ष से पीछे न जाने पाये इसके लिए पश्चिम पर्याप्त धन उपलब्ध कराता है। इसलिए कोई भी शोधकर्ता इसी के इर्द-गिर्द घूमता रहता है, कुछ लोग तो 'व्हाट्सएप और फेसबुक' विश्व विद्यालय के द्वारा ज्ञान ग्रहण करते हैं। जो लोग शौच करके हाथ धोना नहीं जानते वे हमें ज्ञान बाँट रहे हैं और ऐसा बताते हैं कि जैसे सारा ज्ञान इन्हें के पास था हमारे पास तो कुछ था ही नहीं! उन्होंने हमारे वैभवशाली प्राचीन मंदिर, सूर्य व चंद्र ग्रहण जैसे नाशा के पैदा होने के पश्चात होना शुरू हुआ हो हमारे ग्रंथों में तो प्राचीन काल से इसका वर्णन है। वे यह भी बताएंगे कि ताजमहल, कुतुबमीनार, लालकिला जैसे कृति मुसलमानों ने बनाएं लेकिन यह नहीं बताएंगे कि ये जहाँ से आये थे वहां क्या कोई इस प्रकार के कलाकृतियों का भवन है भी की नहीं, जो असभ्य थे कबीलाई थे अब वे हमें ज्ञान दे रहे हैं। लेकिन अब 'भारतीय प्राचीन वांग्मय' को झुठलाया नहीं जा सकता, यह कोई भी बुद्धिमान प्राणी जो दुराग्रही नहीं है यह मानने को तैयार नहीं हो सकता कि 'देवनागरी' लिपि हज़ार वर्ष के अंदर की है, हमारे ग्रंथों की प्राचीनता को कोई चुनौती नहीं दे सकता! प्रति दिन इनके शोध गलत सावित होते जा रहे हैं। हमें किसी से प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वेद स्वतः प्रमाण हैं।


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