भारतीय राष्ट्रवाद की आत्मा हैं भारतीय संत


 भारत वर्ष की आत्मा हैं भारतीय संत---!

भारत वर्ष की जीवन पद्धति का विकास क्रमशः संतों ने किया है लाखों, करोड़ों ही नहीं एक अरब छियानवे वर्ष पूर्व जब सृष्टि का निर्माण हुआ, ब्रह्मा के मानस पुत्र अथवा वैदिक कालीन ऋषियों ने एक एक विषय पर सोध कर क्या खाद्य क्या अखाद्य यह तय किया, क्या पहनना चाहिए क्या नहीं पहनना चाहिए, भाई के साथ, बहन के साथ, माता पिता के साथ, अपने गाँव वालों के साथ, अपने समाज के साथ कैसा ब्यवहार करना चाहिए यह मानव जीवन के विकास में हज़ारों ऋषियों ने अपना जीवन लगा दिया। महाभारत के शान्ति पर्व में भगवान श्री कृष्ण पांडवों से पितामह भीष्म से उपदेश लेने की बात करते हैं, ''पितामह भीष्म'' वाणों की सैया पर पड़े हैं, धर्मराज युधिष्ठिर पूछते हैं कि हे पितामह जब राज्य नहीं थे और राजा नहीं थे तो यह संसार कैसे चलता था तब पितामह उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे पुत्र जब राज्य नहीं थे और राजा नहीं थे तब वह वैदिक काल था, "न राज्यम न राजाशीत न दण्डो न दण्डिका।" न कोई गलत काम करता था और न ही कोई दंड देने वाला था वह वैदिक काल था। अब यह प्रश्न उठता है कि ऐसा समाज जिसमे कोई गलत कार्य नहीं करता था कोई अपराधी नहीं था सभी आपस में प्रेम से रहते थे सभी अपने अपने धर्म का पालन करते थे, सभी वैदिक रीति का पालन करते थे।

जब ऋषि अगस्त ने समुद्र को ही पी लिया

ये सब कैसे संभव हो सका तो कहते हैं कि ऋषि अगस्त ने सम्पूर्ण "समुद्र का जल" पी लिया था यानी सम्पूर्ण विश्व को संस्कारित करने का काम किया था। वेदों के प्रादुर्भाव होने के बाद ऋषियों ने सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुलों के माध्यम से सारे मानव जीवन को सभ्य समाज में दीक्षित किया। और यह केवल वैदिक काल में ही नहीं किया गया तो उस समय जहाँ मंत्रद्रष्टा दीर्घतमा, कवष ऐलूष, अगस्त ऋषि, ऋचीक ऋषि, विश्वामित्र, वशिष्ठ, जमदग्नि सुनःशेप इत्यादि ऋषियों ने अपौरुषेय वेद मंत्रों का दर्शन कर ईश्वर प्रदत्त ज्ञान के द्वारा मानवों को सिंचित किया वहीं 'त्रेतायुग' व 'द्वापरयुग' में 'महर्षि वाल्मीकि' ने 'रामायण' व 'महर्षि वेदव्यास' जी ने ''जयभारत संहिता' लिखकर सम्पूर्ण जगत का मार्गदर्शन किया, जिन्होंने अपने साधना से श्री राम, श्री कृष्ण, भीष्म पितामह, युधिष्ठिर जैसे आदर्श राजाओँ का निर्माण किया। भारतीय संस्कृति कैसी है यदि हम लोग ठीक प्रकार से समझने का प्रयास करें तो ध्यान में आता है कि जब भारतीय त्योहारों, लगन-विबाह का समय आता है तो बाजार भरा पुरा दिखाई देता है, जहाँ भी मंदिरों का निर्माण किया गया है वहाँ हज़ारों लाखों लोगों को रोजगार उपलब्ध ही नहीं हुआ बल्कि वहां आज बड़े बड़े नगर तैयार हो गये हैं, देश के चारों दिशाओं में तीर्थों की रचना करके देश को सुरक्षित रखने का काम किया गया है, इतना ही नहीं तीर्थ यात्रा की परंपरा डालकर राष्ट्रवाद की अग्नि हमेशा प्रज्वलित होती रहे यह अद्भुत प्रयास किया गया है, मैं केवल एक ज्योतिर्लिंग की बात आपके सामने रखता हूँ "देवघर" सावन माह के दर्शन में लाखों लोग आते हैं 'सुलतानगंज' से ''देवघर'' नब्बे किमी दूर है जहाँ लाखों लोगों को रोजगार मिलता है और देवघर जो लोग जाते हैं उनके लिए ''बासुकीनाथ'' जाना आवश्यक हो जाता है जो चालिस किमी की दूरी पर है, सड़क के दोनों किनारों पर सेवा करने वाले तथा विभिन्न प्रकार की दुकानें जो लोगों को आकर्षित ही नहीं करती बल्कि ब्यापारियो का पूरे वर्ष भर का खर्चा निकल जाता है। इस प्रकार हिंदू धर्म में सांस्कृतिक ही नहीं तो रोजगार परक और धार्मिक पर्यटन स्थलों का विकास भी होता है।

महाभारत के पश्चात

महाभारत के पश्चात् समाज मे बहुत सारी विकृति का निर्माण हुआ बड़े बड़े योद्धा, राजा, विद्वान, वैद्य सब समाप्त हो गए बहुत सारे वीरों के चले जाने के बाद विधवाओं की संख्या बढ़ गई, बहुत सारे स्थानों पर भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई, उस समय कोई याज्ञवल्क्य ऋषी होंगे वेदव्यास जी होंगे समाज को सम्हालने का काम किया, जब समाज जीवन में हिंसाचार ब्याभिचार ब्याप्त होने लगा लोग बाममार्गी होने लगे वेदों की उपेक्षा का भाव होने लगा उसी समय लगभग तीन हज़ार वर्ष पहले 'महात्मा बुद्ध' का पीदुर्भाव हुआ और उन्होंने अपने साधना के बल समाज की विकृति को समाप्त करने का काम किया। लेकिन जैसा वर्णित है कि हिंदू सनातन धर्म में विकृति को कोई स्थान नहीं है, बुद्ध तो वैदिक संस्कृति के अनुगामी थे धीरे धीरे उनके अनुयायियों ने अपना धर्म चलाना शुरू कर दिया और जहाँ चैत्यों में पुरूष भिक्षुओं को स्थान मिलता था वहीं इतनी विकृति आ गई कि मठों, बौद्ध विहारों और चैत्यों में महिला भिक्षुणियों का प्रवेश परिणामस्वरूप बुद्ध के बताए गए मार्गों के नाम पर अपना अपना मत चलाने लगे। लेकिन हम सब जानते हैं कि यह समाज रूढ़िवादी समाज न होकर प्रगतिशील समाज है जिसमे समाज को परिस्कृत करने में संतो का वड़ा योगदान रहा है। उसी समय जब राष्ट्र भाव का हनन शुरू हो गया तो सुदूर दक्षिण में एक आचार्य का जन्म हुआ जिन्हें हम आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के रूप में जानते हैं सारा देश में कापुरुषता छायी हुई थी लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें?आदि शंकराचार्य ने शास्त्रार्थ के बल वैदिक धर्म की सार्थकता सिद्ध कर देश में पुनः राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित किया। पुनः पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण सारा भारत वर्ष एक सूत्र में पिरो उठा। शंकर ने एक नई व्यवस्था का संचालन किया जिसमें दशनामी संतों के अखाड़े खड़े किए गए जब भी संकट आये ये अखाड़े संघर्ष के लिए खड़े हो जाते। इतना ही नहीं देश के चारों दिशाओं में चार मठ की स्थापना की द्वादश ज्योतिर्लिंग और बावन शक्तिपीठों की पुनर्स्थापना कर सभी को जागृत करने का काम किया देशभर में सभी को तीर्थ यात्रा तय किया जिससे समाज के अंदर राष्ट्रभाव का जागरण होता रहे, चार शंकराचार्य की नियुक्ति की जिससे देश को सुरक्षित रखने में सुविधा हो।

परकीय हमले और संत समाज

भारतीय संस्कृति में कोई राजा किसी राजा पर आक्रमण करता था तो उसका राज्य नहीं लेता था बल्कि उससे चौथ ( कर) लेकर उसे स्वतंत्र रूप से छोड़ दिया करता था, यदि राजा मार दिया जाता तो उसके लड़के का राजतिलक कर दिया जाता था। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन और भीम को लेकर राजगीर गए जरासंध को मारा लेकिन उसका राज्य नहीं लिया उसके लड़के को राजा बनाकर वापस आ गए। यहाँ चक्रवर्ती सम्राट की ब्यवस्था थी जब वह ब्यवस्था नहीं रही तो कोई भी संपूर्ण भारत वर्ष का सम्राट नहीं होता था, लेकिन किसी भी राज्य में कोई भी जा सकता था किसी भी राज्य में तीर्थ स्थल के निर्माण अथवा तीर्थ यात्रा पर आम जनता जाती थी कोई रोक टोक नहीं था। लेकिन परकीय हमले ने सब कुछ बदल दिया 712 में महाराजा दाहिर पर मुहम्मद बिन कासिम का हमला हुआ कई बार राजा दाहिर ने उसे पराजित कर छोड़ दिया उन्हें इन विधर्मियों के संस्कृति के बारे में जानकारी नहीं थी, ये तो यह समझते थे कि जैसे हमारा धर्म है सामने वाले का भी उसी प्रकार है! लेकिन जब राजा पराजित हुआ तो सब कुछ बदल गया। फिर क्या था मुस्लिम आक्रांताओं के हमले और संत समाज ने अपनी भूमिका निभाने शुरू कर दिया, परिकियों ने केवल लूट पाट ही नहीं किया बल्कि धर्म परिवर्तन भी करने शुरू कर दिया, उसी समय देवल ऋषि ने स्मृति ग्रंथ लिखकर घरवापसी का रास्ता खोल दिया, तुर्कों, मुगलों के आक्रमण ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया धर्मान्तरण की आंधी आ गई बलात धर्मान्तरण शुरू हो गया लेकिन भारतीय संतों ने आगे आकर केवल धर्मान्तरण ही नहीं रोका बल्कि जो मतान्तरित हुए थे उनकी घर वापसी भी की कहीं रामानुजाचार्य, कहीं स्वामी रामानंद, संत रविदास, संत कबीर दास, संत तुलसीदास, गुरु नानक देव, गुरु अर्जुन देव, गुरु तेगबहादुरजी, शंकरदेव, चैतन्य महाप्रभु और गुरू गोबिंद सिंह जैसे अनेकों संतों ने अपने धर्म रक्षार्थ आहुति देने के लिए आगे आये। और देश व समाज को बचा लिया।

ब्रिटिश काल

जजिया कर और धर्मान्तरण झेल रहे भारत में संतों की जागरूकता ने काम किया, मुगल शाहजहां ने अपने दरबारी मंत्रियों से पूछा कि सैकड़ों वर्षों से इस्लामी-करण का कार्य करने पर भी मुसलमानों की संख्या क्यों नहीं बढ़ रही है ? एक मंत्री ने उत्तर दिया कि जो लोग मुसलमान बनाये जाते हैं उन्हें ये हिंदू संत पुनः हिंदू धर्म में वापस ले लेते हैं शाहजहां बहुत नाराज होकर फरमान जारी किया कि जो मुसलमान से हिंदू धर्म में जायेगा और जो इनकी घरवापसी करेगा दोनों को फांसी की सजा दी जाएगी। लेकिन ऐसा करके भी हिंदू संतों को झुका नहीं सका, अंग्रेजों को यह भली-भांति मालुम था कि मुस्लिम सत्ता क्यों समाप्ति हुई इसलिए उन्होंने चर्च को आगे करके भोले भाले हिंदुओं का धर्मान्तरण करना चाहते थे सेवा और चिकित्सा द्वारा धर्म का ब्यापार शुरू कर दिया। उसी समय भारतमाता ने अनेक सुपुत्र पैदा किया जिन्हें महर्षि अरबिंदो, रामकृष्ण परमहँस, स्वामी विवेकानंद, गुजरात में एक अद्भुत सपूत को जन्म दिया जो ऋषि दयानन्द सरस्वती के नाम से विख्यात हुए उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के तथाकथित धर्मों को चुनौती दी और एक अद्भुत ग्रंथ जिसका नाम सत्यार्थप्रकाश था लिखकर विद्यार्थियों के दुखती रग पर हाथ रख दी, स्वामी दयानंद सरस्वती ने "बिना स्वराज्य के स्वधर्म का पालन नहीं हो सकता!" ऐसा युग मंत्र देकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी, उनकी प्रेरणा से क्रांतिवीर स्यामजी कृष्ण वर्मा, लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय, बिपिनचंद्र पाल, स्वामी श्रद्धानंद, वीर सावरकर, भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी तैयार हुए, स्वामी श्रद्धानंद ने सुद्धि सभा बनाकर शंकराचार्य और ऋषी देवल के घर वापसी की परंपरा को आगे ही नहीं बढ़ाया बल्कि आंदोलन ही खड़ा कर दिया और बलिदान हो गए। यदि यह कहा जाय कि देश की आज़ादी का पूरा श्रेय भारतीय संतों को हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

देश विभाजन के पश्चात

देश का विभाजन समान्य नहीं कहा जा सकता "भारतमाता" जीती-जागती "अष्ट प्रहर धारणी" दुर्गा जी हैं, भारतमाता ने अपने लाखों बच्चों की लाशों पर विभाजन स्वीकार किया है, लेकिन जिस राष्ट्रवाद की परंपरा को आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने शुरू किया था संतों ने आगे बढ़ कर उसे आगे बढ़ाने का काम किया, उस समय राष्ट्रीय संत पूज्य करपात्रीजी महाराज, चारों पीठों के शंकराचार्य, प्रभुदत्त ब्रम्हचारी तथा स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुयायियों ने राष्ट्रवाद की प्रखर ज्वाला को जलाये रखा। लेकिन विभाजन के पश्चात देश का ऐसा प्रधानमंत्री बना जिसे राष्ट्र की कोई कल्पना नहीं थी, वामपंथियों तथा फिल्मी दुनिया ने साधू सन्यासियों के खिलाफ एक अभियान सा चला दिया गया, वालीवुड पर मुस्लिम आतंकियों का कब्जा हो गया, मुस्लिम व ईसाई समुदाय के लोगों को महान और भारतीय संतों को खलनायक बनाने का प्रयास किया गया, लेकिन राष्ट्रवाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व में प्रखरता से आगे बढ़ता गया फिर क्या था पुनः संत आगे आने लगे। दलित और जनजातीय समुदाय को धर्मान्तरित करने के लिए चर्च ने ब्यापक योजना बनायी, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और केरल के जनसंख्या का संतुलन बिगड़ने लगा। नार्थईस्ट की हालत गंभीर होने लगे लेकिन केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आर्य समाज ही नहीं साधू सन्यासियों ने भी आगे बढ़कर कार्य करना शुरू कर दिया।

सेकुलर गिरोह

जब इतिहासकार, साधू संतो ने अपने मूल चरित्र बप्पारावल, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, गुरू गोविंद सिंह और क्षत्रपति शिवा जी महाराज के माध्यम से राष्ट्रभाव पनपने लगा तो एक सेकुलर गिरोह का प्रादुर्भाव हुआ, सेकुलर को समझने के लिए हमे मध्य काल के जयचंद, मानसिंह इत्यादि की ओर देखना चाहिए उस समय जो भूमिका इन लोगों की देश के लिए थी ठीक उसी प्रकार का चरित्र सेकुलरों का है यदि इन्हें मूलतः राष्ट्रद्रोही कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इन लोगों ने बड़ी ही निर्दयता पुर्बक भारतीय आत्मा पर हमला शुरू कर दिया, साधू सन्यासियों का चरित्र हनन करना, उन्हें लुटेरा साबित करने का प्रयत्न करना, देश के अंदर बाहर हमारे संत चाहे ''आर्ट ऑफ लिविंग'' के श्री श्रीरविशंकर हों, चाहे 'गायत्री परिवार' के प्रणव पांडिया हो, 'भारत सेवाश्रम संघ' हो, 'आर्यसमाज' हो, शंकर, रामानुज या रामानंद जी के अनुयायी हों अथवा स्वामी रामदेव जी हों, स्वामी नित्यानंद, आशाराम बापू जी हो सभी के चरित्र हनन का प्रयास किया गया। एक बार आशाराम बापू ने अपने प्रवचन में कहा था कि ''पप्पू पास नहीं होगा'' अब यह पप्पू तो एक पार्टी के मालिक का पुत्र ठहरा, देश के अंदर सर्वाधिक घरवापसी करने वाले संत हैं आशाराम बापू ! इसलिए चर्च ने षड्यंत्र पूर्वक उन्हें फसाया कोई केश साबित नहीं हुआ है लेकिन वर्षों से जेल में है जो आरोप है वह भी गजब का ! कि जिस रेप केश में है उस लड़की को बीस वर्ष तक पता नहीं चल पाया कि उसके साथ रेप किया गया है, वास्तव में यह चर्च व कांग्रेस के षड्यंत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। सैकड़ो चर्चों के पादरियों पर यवन उत्पीड़न के आरोप ही नहीं लगे बल्कि गिरफ्तारी भी की गई लेकिन तुरंत उनकी जमानत, देश बहुत सारे मदरसों में यह आम बात हो गई है लेकिन इस पर कोई कार्यवाही नहीं, कार्यवाही आरोप सब हिंदू समाज के संतों, महंतो और आस्था के केंद्रों पर ही यह सब किसी न्यायालय को दिखाई नहीं देता वास्तव में सब भयाक्रांत रहते हैं! जबकि आतंकियों के लिए आधी रात को भी कोर्ट खुल जाती है। आज कल कुछ ''वेव सीरीज'' बनाने का फैशन चल रहा है जिसमे एक सीरीज "आश्रम" है जो हिंदू धर्म के आस्था केंद्रों पर हमला करता है वे निःसंकोच हमारे मठों, संतों के खिलाफ सीरीज बना रहे हैं। जिसमें भारतीय संस्कृति का मजाक उड़ाया गया है, आज कल हिन्दू धर्म का अपमान करना फैशन सा बन गया है और सरकार है कि उसे कुछ दिखाई ही नहीं देता, सेंसर बोर्ड क्या करता है कुछ समझ से बाहर है। उच्चतम न्यायालय भी पूर्ण सेकुलर गिरोह में शामिल है उन्हें आतंकियों, देशद्रोहियों से फुर्सत नहीं मिल रहा है, वास्तविकता यह है कि ये केवल भारतीय संस्कृति, भारतीय संतों का ही अपमान नहीं है बल्कि वह सीधे सीधे राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है और मैं तो यह कहूंगा कि यह केवल सरकार का काम नहीं है बल्कि हिंदू समाज को इसके लिए आगे आना होगा तब ही भारतीय संस्कृति व देश सुरक्षित रहेगा।

बर्तमान में संतों की भूमिका

किसी भी देश की आत्मा उस देश के महापुरुष, वहाँ की आध्यात्मिक शक्तियां और उसके परंपरागत प्रकृति होती है, इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी इत्यादि देशों में राष्ट्रवाद के लिए चर्च एक सेना के रूप में काम करती है, भले ही कैथोलिक चर्च, प्रोटेस्टेंट चर्च, ऑर्थोडॉक्स इत्यादि में बड़ा मतभेद है जो एक दूसरे के चर्च में नहीं जाते यहाँ तक कि चर्च में काले और गोर का भी भेद है लेकिन जहाँ देश, राष्ट्रवाद की बात आती है सब एक हैं। उसी प्रकार विश्व का दूसरा सबसे बड़ा धर्म इस्लाम है जो विश्व के 56 देशों में इस्लामिक राष्ट्र के रूप में है इनके सारे देश मस्जिद- मदरसों तथा मुल्ला -मौलवियों से नियंत्रित होते हैं लेकिन इनकी वास्तविकता यह है कि इनमें 72 फिरके हैं आपस में बहुत मतभेद है, इतना कि एक दूसरे की मस्जिद में नहीं जा सकता और इतना ही नही प्रति वर्ष लाखों मुसलमानों की हत्या मुस्लिम ही करते हैं और उनके जो आतंकवादी संगठन हैं उसके प्रमुख अपने को 'खलीफा' ही मानते हैं लेकिन इस्लाम के नाम पर एक हैं और भारत का मुसलमान भारतीय नहीं है इनके बारे में ''डॉ आंबेडकर'' कहते हैं कि मुसलमानों की निष्ठा केवल इस्लाम में है न कि किसी देश मे इसलिए भारतीय मुसलमान भारत की अपेक्षा इस्लामी देशों के नजदीक पाए जाते हैं।

भारतीय संस्कृति व राष्ट्र की निर्मिति में संतो की महान भूमिका रही है और आज भी भारतीय संस्कृति के विकास क्रम में संतो की बहुत बड़ी भूमिका है, भारतीय संतों की भूमिका अथवा हमारे मठ, मंदिरों की भूमिका चर्च व मस्जिदों जैसी नहीं है हमारे यहाँ साधू सन्यासी राजनीति को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं करते लेकिन राष्ट्रभाव के लिए कार्य करते हैं। हम सभी जानते हैं कि "वयं राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहिता" यह ऋग्वेद का मंत्र है वह वेद जो एक अरब छानबे वर्ष पुराना है, सरस्वती नदी के किनारे गुरुकुलों के माध्यम से ऋषियों ने इस संस्कृति को पनपाया, भारतीय राष्ट्रवाद वेदों से शुरू होकर ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषदों, रामायण और महाभारत से लेकर आगे बढ़ता है जिसे हमारे साधू सन्यासी परिभाषित करते हैं। सभी जानते हैं कि हिंदू धर्म रूढ़िवादी नहीं है नित्य नूतन है ऋषियों द्वारा बारम्बार परिष्कृत किया जाता रहा है उसी प्रकार आज के युग में चाहे शंकराचार्य के अनुयायी हो अथवा रामानुजाचार्य के सभी लोग अपने माध्यम से काम कर रहे हैं, स्वामी रामदेव जी ने देश के कोने कोने में गुरुकुलों का जाल बिछाकर वैदिक संस्कृति व राष्ट्रवाद को पुनर्जीवित करने का काम शुरू कर दिया है देश में स्वदेशी आंदोलन को केवल बढ़ावा ही नहीं दिया बल्कि बिकल्प भी खड़ा कर दिया, आज आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को पतंजलि योगपीठ ने एक नई पहचान दिया है योग के रूप में जो विश्व में योग दिवस के रूप में मनाया जा रहा है, श्री श्री रविशंकर ने 'आर्ट ऑफ लिविंग' के माध्यम से आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का अलख जगाने का काम कर रहे हैं, पुणे के स्वामी गोविंददेव गिरी,  राजकोट गुजरात से आर्ष गुरुकुलम को चलने वाले 'स्वामी परमात्मा नंद सरस्वती', मुंगेर योग पीठ, आशाराम बापू जी का सत्संग और बहुत सारे कथा वाचक सभी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। चर्च द्वारा धर्मान्तरण का षड्यंत्र तथा लव जिहाद, लैंड जिहाद सभी का पर्दाफाश करने का काम हमारे संत व कथावाचक कर रहे हैं यह सब राष्ट्रभाव का जागरण ही है हमारे संत सत्ता का नियंत्रण नहीं बल्कि राष्ट्रवाद के विकास के लिए कार्य करते हैं। इसी कारण जो राष्ट्र विरोधी तत्वों की परेशानी बढ़ी है और संतों पर अनेक प्रकार के अनर्गल आरोप लगाने का निरर्थक प्रयास करते रहते हैं।



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