विश्वरूप से मंडन मिश्र तक

 

मंडला का गुरुकुल

आचार्य कुमारिल भट्ट की दिव्य दृष्टि ने एक ही नजर में पहचान लिया था जब वे उत्तर से दक्षिण दिग्विजय यात्रा पर निकले थे उन्हें जब वह बालक विश्वरूप नर्मदा घाटी में मिला था वे विश्वरूप के घर जाकर उसे मांग लिया, तभी उनके मन में अपने वैचारिक उत्तराधिकारी के बारे में चल रहा था। अब सात वर्ष बीत चुका है विश्वरूप अब बालक से युवा अवस्था में प्रवेश कर चुका है अब तो उसके चेहरे भी बदल गए हैं। जिसकी रुचि संगीत में थी अब वह वेदान्त का अध्येता बन गया है, इस परिवर्तन के विधायक भट्टाचार्य कुमारिल थे। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि ने देखते ही उसकी विलक्षण प्रतिभा को पहचान लिया था और उपयुक्त शिष्य समझ कर स्वयं उसके द्वार पर गए थे।

विश्वरूप जन्म से ही असाधारण मेधावी, कुशाग्रबुद्धि तथा श्रुतिधर था, उसकी अपनी विलक्षण प्रतिभा तथा गुरु की विशेष कृपा का फल यह हुआ कि पांच वर्षों के अल्पकाल में ही वेद, उपनिषद, पुराण, धर्मशास्त्र तथा न्याय, सांख्य, मीमांसा, आदि दर्शन शास्त्रों में पारंगत होकर कुमारिल का विशेष कृपा पात्र वन गया। तत्पश्चात कुमारिल भट्ट ने उसे बौद्ध, जैन तथा चार्वाक दर्शनों का अध्ययन कराया और अपने साथ शास्त्रार्थों में ले जाना आरंभ कर दिया। इस प्रकार विश्वरूप का गुरुकुल प्रवास पूर्ण हुआ पूर्णतया संतुष्ट गुरु भट्टाचार्य ने उसे पित्र गृह लौटकर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश की अनुमति दे दी। 

भट्टाचार्य स्वयं विश्वरूप के कमरे में 

अब विश्वरूप के प्रस्थान का समय आ गया था अगले ही दिन विश्वरूप को घर के लिए प्रस्थान करना था कि स्वयं कुमारिल भट्ट उससे मिलने पधारे।अरे यह क्या आचार्य कुमारिल! सभी विद्यार्थी भौचक्के .. आचार्य आप तो हमे बुला सकते थे यह असाधारण आचरण क्यों ? चकित विश्वरूप ने चरण स्पर्श किया जब आचार्य बैठ गए फिर विनीत स्वर में बोला ! मेरे अहोभाग्य मेरी कुटिया पवित्र हो गई! कुमारिल भट्ट ने सामने बैठने का संकेत करते हुए कहा, तुम्हें उस दिन का स्मरण है जब हमने तुम्हें पहली बार देखा था.? याद है देव ! संकोच से विश्वरूप ने उत्तर दिया। उस दिन मैं तुम्हारे घर गया था तुम्हारे पिता से कुछ मांगने फर्क यह है कि आज मैं तुम्हें कुछ देने के लिए आया हूँ। विश्वरूप सिर झुकाये बैठा रहा, पूछा गुरु जी पहले आपको ऐसा कभी नहीं देखा ! चिंताएं बहुत थीं, कुमारिल बोले हमने सदधर्म की रक्षा का विणा उठाया है उसके लिए आंदोलन शुरू किया था और सफलता भी मिली। हमे लगता है कि शरीर रहे न रहे हमारा कार्य रुकेगा नहीं! हमे अपना उत्तराधिकारी मिल गया है, कहते कहते कुमारिल का कण्ठ भर आया, विश्वरूप विस्मय से उन्हें देख रहा था वह आचार्य के चरणों में गिर गया। कुमारिल बोले उत्तराधिकार में कोई आश्रम अथवा पीठ ऐसा कुछ नहीं है पुत्र आने वाले महापुरुष के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना है यही मेरा उत्तराधिकारी बनने का लाभ होगा जो अपने राष्ट्र व धर्म और देश को कभी वैचारिक गुलामी नहीं झेलनी होगी।

कुमारिल का उत्तराधिकारी

जिस लक्ष्य की ओर गोविंदपाद ने इशारा किया था उस पृष्ठभूमि को तैयार करते हुए भट्टाचार्य कुमारिल योग्य उत्तराधिकारी की खोज पूरी कर लिया था। वैदिक धर्म, मानव धर्म और जिसे हम विश्व धर्म भी कह सकते हैं उसके संरक्षण विकास और मानव जीवन को उचित मार्गदर्शन मिले जिसके लिए गोविंदपाद ने कुमारिल को बताया था अब अपनी भूमिका का उत्तराधिकारी चाहिये जो राष्ट्रजीवन में नई कड़ियाँ जोड़ सके। आचार्य गोविंदपाद ने बताया था कि वो महापुरुष दक्षिण के केरल में जन्म ले चुके हैं, कुमारिल भट्ट ने विश्वरूप को बताया कि भगवान वेदव्यास के पुत्र महिमा मंडित शिष्य शुकदेव के एक शिष्य थे उनका नाम था गौडपादाचार्य ये यतिश्रेष्ठ उन्हीं के शिष्य गोविंदपाद हैं। वे नर्मदा तट के गुफाओं में उनका निवास है कभी कभार उनका दर्शन भी कुछ लोगों को मिला है, और शंकर की शिक्षा दीक्षा उन्होंने ही दिया है और वही गोविंदपाद ही उनका रास्ता सरल करना चाहते हैं कि एक बार पुनः वेंदो का गुंजायमान भारतभूमि पर हो, पुनः राष्ट्रवाद इस धरती की आत्मा की पुकार बन सके।

वे भारत के आंतरिक एकता के बाहक और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के योजक हैं जो आदि शंकराचार्य से करवाना चाहते हैं और हम सभी को उस रास्ते को निर्विघ्न करना है। उन्होंने वेदान्त में अनेकता में एकता सूत्र, वेदाधारित उपासना पद्धति "अहं ब्रम्हास्मि" का सिद्धांत प्रतिपादित करना, प्रत्येक मत के मार्ग अलग हो सकता है लेकिन गंतव्य एक ही है। सभी का खंडन नहीं मंडन करना यानी सभी मतों को बुद्धिमत्ता पूर्वक वैदिक सावित करना। यही भारत की एकता का मूल है। और यह उपदेश करते करते उन्होंने विश्वरूप से कहा आज से तुम्हारा नाम विश्वरूप नहीं मंडन मिश्र होगा, तुम इस नाम से जगत में विख्यात होगे, भविष्य में तुम्हें इसी नाम से जाना जाएगा। अब तुम्हें हमारे सारे कार्यो को करना है और उस महापुरुष की प्रतीक्षा। अब मैं निश्चिंत होकर अपने प्राश्चित के लिए जा रहा हूँ।

कुमारिल का अंतिम संदेश

कुमारिल ने विश्वरूप से कुछ छिपाना नहीं चाहते थे वे अपना सब कुछ दे देना और सब कुछ बताना चाहते थे वे बोले सँसार जानता है वत्स, कि हम कुछ काल नालंदा विश्वविद्यालय में रहे। वहां मैं आचार्य धर्मपाल का शिष्य था वे उद्भट विद्वान थे लेकिन वेद विरोधी थे यदि वे वेद विरोध न होते तो वे ऋषि कहलाते। हमारा उद्देश्य कुछ भी रहा हो, हमने उनका शिष्यत्व अपनी स्वेच्छा से ग्रहण किया था। अतः वे प्रत्येक स्थिति में हमारे गुरु थे और हमने उनका विरोध किया! उन्हें ललकारा उनसे शास्त्रार्थ किया, पराजित किया ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई कि उन्हें तुषाग्नि में प्रवेश करना पड़ा। हमने गुरुद्रोह किया है हमने गुरूहत्या का पाप किया है जिसका हमे प्राश्चित करना है और वह प्राण देकर ही किया जा सकता है। हमें जो कहना था कह दिया अब इस विषय मे न कुछ कहना है न सुनना है, अतः हम अब चल रहे हैं। विश्वरूप ने आज अपने गुरू विख्यात दार्शनिक कुमारिल भट्ट का अंतरंग देखा, उनके हृदय की वाणी सुनी।

मंडन मिश्र--! महेसी अथवा मंडला

मंडन मिश्र के बारे में मंडला तथा महिस्मती के लोग यह मानते हैं कि उनका निवास महिस्मती नगरी आज जिसे महेश्वर कहा जाता है यह नगर बहुत दिनों तक होल्कर राज्य की राजधानी रही है। आज भी मंडन मिश्र के आवास के खंडहर अवशेष दिखाई देता है, कुछ विद्वानों का मत है कि मंडन मिश्र की आवास बिहार में बताया है, कि उनका निवास स्थान बिहार के सहरसा जिले में महेसी गांव है जहाँ आज भी उनके आवास के कुछ खंडहर पाए जाते हैं। कुछ विद्वानों ने उन्हें कश्मीर का कहा है, उनका सामान्य मकान नहीं था वह अपने समय का अच्छा महल था। लेकिन इतना तो सत्य है कि उनकी शिक्षा मंडला के गुरुकुल में हुई जो आचार्य कुमारिल भट्ट के द्वारा चलाया जाता था। जिसमे कोई संदेह नहीं है कि भारत में गुरुकुलों के संजाल फैलाने में आचार्य कुमारिल भट्ट और मंडन मिश्र का बड़ा योगदान रहा है जिसका उपयोग भविष्य में आचार्य चाणक्य ने किया और भारत को पुनः शक्तिशाली साधन संपन्न वैभवशाली विश्व गुरु बनाया।


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