सांस्कृतिक राष्ट्र को राजनैतिक भारत के उदगाता आचार्य विष्णुगुप्त (चाणक्य)--!

 


माँ भारती के चैतन्य पुत्र चाणक्य

महात्मा बुद्ध का जन्म ईसापूर्व 1000 माना जाता है इसका अर्थ यह है कि आज के 3000 वर्ष पहले महात्मा बुद्ध का काल था। बुद्ध के लगभग 500 वर्ष बाद यानी 500 ईसापूर्व आदि शंकराचार्य और कुमारिल का काल माना जा सकता है। आचार्य चाणक्य को 375 ईसापूर्व माना जाता है। जब विश्व के अनेक देशों में लोग असभ्य थे, सभ्यता छू तक नहीं गई थी, तब भारत में वेदांत और वेंदो पर शास्त्रार्थ हो रहा था। महाभारत में हमारे महान योद्धा, ऋषि, विद्वान और विभिन्न प्रकार के साधकों ने उस युद्ध में अपनी आहुति दे दी और यह धरती वीर्य हींन सी हो गई। लेकिन धीरे धीरे पुनः इस धरती पर स्वामी महाबीर, महात्मा बुद्ध, कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ। उसी में एक तीक्ष्ण बुद्धि राजनीतिज्ञ पैदा हुआ जिसे हम चाणक्य के नाम से जानते हैं, आचार्य चाणक्य का मूल नाम आचार्य विष्णुगुप्त था। महात्मा बुद्ध तो वैदिक मतावलम्बी थे लेकिन उनकी शिक्षा वैदिक नहीं हो पाई उन्हें यज्ञों में पशु बलि को देख बड़े दुःख हुआ। उन्होंने पंडितों से पूछा कि यह जीव हत्या क्यों ? पंडितों को भी वेदों का यज्ञों का समुचित ज्ञान नहीं था उन्होंने कहा ये ईश्वर को मिलता है, बुद्ध ने कहा यदि ईश्वर हत्या पसंद करता है तो मैं ऐसे किसी ईश्वर को नहीं मानता। जब पंडितों ने बताया कि यह वेदों में लिखा है जबकि वेद विना पढ़े ही बताया था महात्मा बुद्ध ने कहा यदि ये हिंसा वेदों में है तो मैं ऐसे किसी वेद को भी नहीं मानता। महात्मा बुद्ध की इस भूल ने देश को कापुरुषता की ओर धकेल दिया जबकि बुद्ध अपने अंतिम समय तक वैदिक ही बने रहें। देश में वेदों का ह्रास होने लगा पूरा देश बौद्ध होने लगा अधिकांश राजा बौद्ध मतावलम्बी हो गए लेकिन जनता वैदिक मतावलम्बी ही बनी रही। ऐसे समय कुमारिल भट्ट ने प्रतिज्ञा किया कि मैं वेदों का पुनउत्थान करूँगा उन्होंने शास्त्रार्थ बल जैनियों और बौद्धों को चुनौती दी उन्हीं का अनुसरण करते हुए आदि जगद्गुरु शंकराचार्य ने वैदिक धर्म ध्वजा फहराया, अरब देश से लेकर ब्रम्हदेश तक वैदिक ध्वजा फहराने लगी। अभी तक यह आध्यात्मिक भारत था अब इसी आध्यात्मिक भारत को राजनैतिक स्वरूप देने वाले को आचार्य चाणक्य के नाम से जानते हैं। जी जो भारत का राजनीतिक स्वरूप दिखाई देता है वह चाणक्य का दिया हुआ है, सत्ता का एक ताकतवर केन्द्र।

चणक पुत्र विष्णुगुप्त

चाणक्य के पिता का नाम चणक था वे बड़े मेधावी थे लेकिन कोई महामात्य नहीं थे, मगध साम्राज्य के राजा महापद्मनंद की नीति को पसंद नहीं करते थे वे सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक करना चाहते थे यह दोनों में मतभेद था। बात आगे बढ़ने अथवा और भी कोई घटना होने के कारण सम्राट ने राजधानी के चौराहे पर चणक का सिर काटकर टांग दिया। उस समय विष्णुगुप्त की आयु चौदह वर्ष की थी अकेले ही पिता का अंतिम संस्कार किया। विष्णुगुप्त का जन्म पाटिलीपुत्र में ही हुआ था और वे शिक्षा के लिए तक्षशिला की ओर चले गए। उस समय सारे देश के राजाओं महाराजाओं के लड़के तक्षशिला विश्वविद्यालय में पढ़ते थे। विष्णुगुप्त वहाँ पर दण्ड शास्त्र और राजनीतिक दर्शन की शिक्षा पूर्ण कर वहीं पर इन्हीं विषयों के आचार्य बन गए। एक समय ऐसा आया कि देश भर में अधिकांश राजाओं के राजकुमार, राजाओं के महामात्य, महामंत्री सभी आचार्य चाणक्य के शिष्य थे। देश भर में गुरुकुलों की श्रृंखला खड़ी होना शुरू हो गया लगभग जितने गांव थे उतने ही गुरुकुल उन्हीं गुरुकुलों से निकले हुए क्षात्र विश्विद्यालयों में जाते थे लेकिन वे सभी तक्षशिला में प्रबेश चाहते थे। ऐसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित आचार्य थे आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य।

गुरु और शिष्य 

तक्षशिला के आचार्यों में विष्णुगुप्त का स्थान प्रमुख था वे आंवीक्षकी और दंडनीति के प्रकांड विद्वान थे और धनुर्विद्या में उनकी अनुपम गति थी। राजनीति और शस्त्र संचालन का उच्चतम ज्ञान प्राप्त करने के लिए भारत के विविध जनपदों के बहुत सारे राजकुमार उनके श्रीचरणों में उपस्थित हुआ करते थे। उनके पास शिक्षा प्राप्त करने वाले कुमारों की संख्या 101 थी, राजकुमारों के अतिरिक्त चार सौ के लगभग अन्य विद्यार्थी उनकी शिष्यमंडली के अंतर्गत थे। एक दिन दोपहर में एक युवक उनकी सेवा में उपस्थित हुआ, उसकी आयु सोलह वर्ष की थी। कपड़े फटे हुए थे माथे पर खून की गहरी रेखा चमक रही थी, युवक ने पैर छूकर आचार्य को प्रणाम किया और सिर झुकाकर एक ओर खड़ा हो गया। तुम कहाँ से आये हो तात! आचार्य ने पूछा, पाटिलीपुत्र से आचार्य! किसके पुत्र हो? मौरियगण के गणमुख्य महानाम का पुत्र हूँ। 

मै क्षत्रिय कुमार 

"मैं राजकुमार हूँ, और मेरी माँ राजमिहिषी है मौर्य कुमार कभी दास नहीं हो सकता। मेरी नशों में सूर्य वंश के क्षत्रियों का शुद्ध आर्य रक्त प्रवाहित हो रहा है। मेरी प्रतिज्ञा है कि नन्द को परास्त कर मैं अपने वंश के लुप्त गौरव का पुनरुद्धार करूँगा।" और इसीलिए मैं आपके पास आया हूँ। दण्ड नीति और शस्त्र विद्या की उच्चतमशिक्षा प्राप्त करने के लिए मैं अपने आपको समर्पित करने आया हूँ। ठीक पर क्या आचार्य शुल्क लाये हो अथवा शिक्षा के बदले सेवा का विचार रखते हो! मेरे शिक्षणालय में शिक्षा शुल्क एक हज़ार कार्षापण है। आचार्य मैं शुल्क देने में सक्षम नहीं हूँ और सेवा करने का अभ्यास नहीं है और यह मेरे कुल गौरव के अनुकूल भी नहीं है। तो फिर तुम अपना निर्वाहन कैसे करोगे? आचार्य चाणक्य ने कहा!  "मैं आचार्य का शुल्क अपने तलवार के जोर पर चुकाने पर उद्दत हूँ! जब मैं नंद को परास्त कर "मौरिय गणराज्य" को स्वतंत्र करा लूंगा तो आचार्य का शुल्क ब्याज सहित चुका दूँगा। 

तुमने कुछ शिक्षा प्राप्त किया है कुमार? मुझे नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला पर मैं धनुष, खड्ग, शक्ति, प्रास, शूल, तोमर इत्यादि शस्त्रों का संचालन करने में निपुण हूँ, अपनी मां से राजनीति और दर्शनशास्त्र का भी कुछ ज्ञान हमने अपनी माता से प्राप्त किया है। मेरी माँ मुझे "पिप्पलिवन" के गणराज्य के गौरव गाथाएं सुनाया करती थीं उसे सुनते हुए मुझे मगध राजवंश के प्रति विद्वेष की अग्नि भड़क उठती थी। "लगता है कि चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य दोनों का दर्द एक ही लगता है दोनों मगध सम्राट से दुखी हैं," दोनों राष्ट्रवादी हैं, दोनों बदला लेना चाहते हैं, दोनों प्रतिक्रिया वादी हैं" इसलिए दोनों नंदवंश को समाप्त कर सम्पूर्ण भारत वर्ष को एक सूत्र में पिरोना यही लक्ष्य है इसलिए दोनों एक दूसरे के पूरक हैं दोनों का उद्देश्य भी एक ही है इसलिए गुरु शिष्य दोनों दो शरीर एक विचार यही उद्देश्य।

महाराजा आम्भी

सीमा प्रान्त रक्षक केकय राज्य के राजा महाराजा पोरस और गांधार राजा आम्भी का तनाव चल रहा था उधर सिकंदर भारत पर आक्रमण की तैयारी कर रहा था इन दोनों राजाओं ने अथवा कठ-गण समुहों ने किसी ने ध्यान नहीं दिया। सिमा प्रान्त में छोटे छोटे समुहों में राज्य थे वे स्वाभिमानी और लड़ाकू भी थे किसी की अधीनता स्वीकार करना उनके लिए सहज नहीं था। महाराजा पोरस ने आम्भी के ऊपर हमला कर दिया बहुत हानि तो नहीं हुई लेकिन गांधार के तक्षशिला में महाराजा पोरस का भव्य जुलूस गाजे बाजे के साथ निकाला गया राजा आम्भी ने उनका अपने नगर में स्वागत किया। जहाँ राजा पोरस विजय के आकांक्षी थे वहीँ आर्य परंपरा में कोई भी राजा किसी राज्य को हड़पता नहीं था स्त्रियों, बच्चों व असैनिकों पर हमला नहीं किया करता था न प्रताड़ित करता था। इसलिए भारतीयों को विदेशी हमलों अथवा आक्रमणकारियों के बारे में यदि यह कहा जाय कि अनिभिज्ञता थी तो अतिश्योक्ति नहीं होगा, भारतीय राजा सुसंस्कृत थे वे पराजित राजा का अपमान नहीं किया करते थे लेकिन यवन आक्रमणकारी तो राक्षसों से भी बदतर थे वे महिलाओं को वुजूर्गों को असैनिक स्थानों को भी निशाना बनाने से नहीं चूकते थे। राजा आम्भी को पोरस के हमले से अपने को अपमानित महसूस करने लगे और बदला लेने का रास्ता खोजने लगे।जब उन्हें पता चला कि यवनराज सिकंदर भारत पर आक्रमण करने वाला है तो पहले ही अपने सेनापति को संदेश वाहक बनाकर भेज अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेज दिया और उसके स्वागत के लिए तैयार हो गया, यही ब्यक्तिगत अहंकार भारत पर भारी पड़ने लगी। 

आचार्य चाणक्य मगध साम्राज्य की ओर

आचार्य चाणक्य गंधार, केकय व अन्य गणराज्य संगठित नहीं हो रहे हैं उन्हें लगा कि मगध साम्राज्य बहुत ताकतवर है सैन्य शक्ति भी बहुत अधिक है वह भारतीय राष्ट्र की रक्षा के लिए आगे आ सकता है। लेकिन दुर्भाग्य ऐसा की जो मगध साम्राज्य के महामंत्री शकटार थे चाणक्य के सहपाठियों में से थे, राज्य षड्यंत्र के कारण उन्हें कैद कर लिया गया था। आचार्य चाणक्य उन्हीं राजद्रोही शकटार के यहाँ रुके और महाराज नंद से मिलने के लिए प्रयास करने लगे, वहां के तत्कालीन महामंत्री यह नहीं चाहते थे कि चाणक्य की भेंट राजा से हो नहीं तो राज्य और राजा की पोल-पट्टी खुल जायेगी। लेकिन किसी कार्यक्रम में महराज को आना था, महामंत्री ने आचार्य चाणक्य को बुला भेंट करा दिया-- क्या चाहिये ब्राह्मण ? कुछ नहीं महराज! तो क्यों हमारा समय ब्यर्थ कर रहे हो। आचार्य ने कहा महराज यवनराज सिकंदर विश्व को रौंदता हुआ भारत पर आक्रमण करने आ रहा है उसे वहीँ भारतीय सीमा पर रोकना चाहिए। राजा नंद नाराज होकर कहा महामंत्री इसको क्यों यहाँ लाये जब मगध पर हमला होगा तो हम निपट लेंगे चाणकय कुछ बोलना चाहते थे तभी इन्हें अपमानित होना पड़ा और राजा ने बन्दी बनाये जाने का आदेश दे दिया। राजा नंद तो अपने महल में चला गया और सैनिक आचार्य चाणक्य को पकड़ने वाले ही थे कि एक नव युवक अपनी तलवार निकाल कर ललकारा किसकी हिम्मत है जो हमारे गुरू को बंदी बनाये और चाणक्य को लेकर गायब हो गया। अब आचार्य चाणक्य ने शकटार को भी छुड़ा लिया था तीन राजद्रोही पाटिलीपुत्र में उपस्थित हैं, मुनादी हो रही है कि तीनों को पकड़ा जाय लेकिन शकटार और चंद्रगुप्त को सारे रास्तों की जानकारी थी वे पहले राजधानी से बाहर निकल गए और फिर मगध साम्राज्य के बाहर होते चले गए।

अब एक ही विकल्प सम्पूर्ण भारत का एक साम्राज्य

मगध साम्राज्य को पार करने के पश्चात तीनों सीधे केकय देश पहुंचे जहां उनके सहपाठी इन्द्रदत्त केकय राज्य का महामंत्री था इन चारों ने मंत्रणा शुरू किया वास्तव में आचार्य चाणक्य किसी परिचय के मोहताज नहीं था सारे भारतवर्ष के राजाओं के राजकुमार व महामंत्री उनके शिष्य थे उनके साथ गुरु शिष्य का ही ब्यवहार करते थे। इन्द्रदत्त ने आचार्य चाणक्य से कहा आचार्य मैं आपकी मंशा समझता हूं लेकिन यह भारतवर्ष एक क्षत्र के नीचे कैसे आएगा? और कौन होगा इतने बड़े साम्राज्य का चक्रवर्ती सम्राट? बिना कुछ बिलंब किये चाणक्य ने कहा चंद्रगुप्त मौर्य होगा भारत का चक्रवर्ती सम्राट। उसने सिकंदर से मिलकर उसे ललकार कर वहाँ से बच निकलकर, आम्भी के आँखों के सामने अपनी सार्थकता सिद्ध कर दिया है। अब चाणक्य इस विशाल भारत को संगठित करने एक करने के लिए योजना शुरु कर दिया। उन्होंने पूरे भारतवर्ष के गुरुकुलों को संदेश देना शुरू कर दिया अपने शिष्यों (राजकुमारों-महामंत्रियों) को संदेश भेजना शुरू कर दिया। संदेश इतना प्रभावी था कि स्थान स्थान पर यवन आक्रमणकारी सिकंदर के खिलाफ विद्रोह होना प्रारंभ हो गया। जो राज्य सिकंदर की अधीनता स्वीकार कर चुके थे वहां की जनता, वहाँ के गुरुकुल, आचार्य, सेना बिद्रोह की मुद्रा में थी वे अपने माता पिता व जनता का अपमान सहने को तैयार नहीं थे।

पराजित सिकंदर

 स्थान स्थान पर सिकंदर की सेना को संगर्ष करना पड़ा, कई स्थानों पर सिकंदर की पराजय हुई वहां समझौता करना पड़ा। और वहीँ के राज्यों को राज सौपना पड़ा। सिकंदर की सेना केकयराज पोरस से पराजित होकर क्षमा याचना करते हुए वापस जाने देने की अनुमति मांगने लगा। आर्य राजाओं की क्षमा बृत्ति ने सिकंदर को वापस लौट जाने की आज्ञा दी और सिकंदर वापस अपने देश जाने लगा लेकिन सिंधु नदी के आस पास के छोटे छोटे राज्यों ने पराजित सिकंदर के ऊपर हमला कर उसे अपने राज्य वापस नहीं जाने दिया। वास्तविकता यह है कि पोरस से सिकंदर पराजित हो गया था और इसी कारण वापस जा रहा था अन्यथा विजयी सेना पर कोई हमला करता है क्या ? सिकंदर की विजय गाथा विश्व में कहीं नहीं लिखी गई है केवल उसके अपने देश के इतिहासकारों ने सिकंदर को विश्व विजेता, महान इत्यादि शब्दों से अलंकृत किया है न कि विश्व इतिहास ने अथवा भारतीय इतिहासकारों ने।

आचार्य का चिंतन

सुबह का समय था, नित्य कर्म से निवृत्त होकर आचार्य विष्णुगुप्त अपनी कुटिया में विराजमान थे। आचार्य चाणक्य का प्रवचन सुनने के लिए अंग देश का राजकुमार अरिंदम, इंद्रप्रस्थ का राजकुमार धनंजय, काशी का राजकुमार ब्रम्हादत्त, मिथिला के राजकुमार सुरुचि मोरियागण का राजकुमार चंद्रगुप्त और कुरुक्षेत्र का कुमार सुतसिम आचार्य चाणक्य के प्रमुख शिष्यों में से थे। इन राजकुमारों के अतिरिक्त अनेक श्रोतिय पुत्र, विदेहक पुत्र आदि भी उनकी शिष्य मंडली में समलित थे। आचार्य विष्णुगुप्त की भाव भंगिमा अत्यंत गंभीर थी कुछ देर चुप चाप बैठे रहने के पश्चात उन्होंने धीरे धीरे बोलना शुरू किया--- शायद कुछ समय के लिए हमे तक्षशिला के बाहर जाना पड़े! शिष्यों ने कहा तो फिर हमें शिक्षा कौन देगा ? आचार्य चाणक्य ने कहा तुम लोग अपनी शिक्षा की चिंता मत करो मेरा सहयोगी विष्णु शर्मा आनवीक्षकी और दंदशास्त्र का पारंगत आचार्य है, मेरी अनुपस्थिति में वही तुम्हारे आचार्य होंगे। अब आचार्य शिक्षा आचार्य नहीं प्रत्यक्ष राजनीति और दंदशास्त्र का उपयोग करने वाले हैं वे अब किसी राजा महाराजा की प्रतीक्षा करने वाले नहीं। एक शिष्य ने पूछा गुरुकुल तो क्रियात्मक राजनीति से अलग रहता है आचार्य--- अब ऐसी कौन सी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है जिससे आपको अपनी नीतियों में परिवर्तन करना पड़ रहा है ? आचार्य चाणक्य ने बताया, कि अब ऐसी परिस्थिति का निर्माण होने वाला है जिससे आर्य मर्यादा की ही सत्ता संकट में पड़ जाएगी। जब केकयराज ने तक्षशिला पर आक्रमण किया तो क्या इस नगरी को ध्वस्त किया? योद्धा तक्षशिला की प्राचीर से लड़ रहे थे और हमारे विद्यापीठों में पठन पाठन जारी रहा, हमें दोनों ओर से कोई भय नहीं था आर्य मर्यादा यही है। पर यवन राज सिकंदर के आक्रमण में यह दशा नहीं रहेगी, उसका प्रतिकार तो हमे करना ही होगा।

कर्तब्य का पालन

अब हमें क्या करना होगा आचार्य ? विदेशी यवनों से भारतवर्ष की रक्षा करने के लिए हमें सम्पूर्ण देश को एक राजनीतिक संगठन में संगठित करना होगा। अब छोटे छोटे जनपदों का युग समाप्त हो गया है। हमारे देश के कठ, मालव, क्षत्रिय, क्षुद्रक, आग्रेय आदि गणराज्यों के समान इन यवन राज्यों में भी जनता अपना शासन स्वयं किया करती थी। पर मैसिडोनिया के राजा फिलिप और उसके पुत्र सिकंदर के सम्मुख यवन राज अपनी स्वतंत्रता कायम नहीं रख सके। भारत में यदि आर्य जाति के धर्म और मर्यादा को कायम रखना है तो उसका एक मात्र उपाय इस सम्पूर्ण देश में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की जाय। हिमालय से लेकर समुद्रपर्यन्त जो एक सहस्त्र योजन विशाल भूखंड है, वह एक चक्रवर्ती साम्राज्य का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में एक शक्तिशाली सुसंगठित राज्य की स्थापना करनी होगी, तभी यह देश यवन आक्रमणों से अपनी रक्षा कर सकेगा। मैं अपना शेष जीवन इसी कार्य में ब्यतीत करुगा। आचार्य विष्णुगुप्त का प्रवचन चंद्रगुप्त मौर्य बड़े ध्यान से सुन रहा था, वह अब शान्त नहीं रह सका। उसे अपने उद्देश्यों की पूर्ति होती दिख रही थी। 

मगध साम्राज्य पर आक्रमण

केकय व वाहीक देशों के गुरुकुल क्षात्रों वहां की कुटिनीति ने यवनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया, आचार्य चाणक्य की नीति सर्वदेश में विजय पताका फहराती हुई अब मगध को ओर बढ़ रही थी। कुमार चंद्रगुप्त और राजा पर्वतक के नेतृत्व में वाहीक देशों, केकय, गंधार की सेनाओं ने मगध साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुरु देश में यमुना नदी के पूर्वी तट पर बहुत से दुर्ग महापद्मनंद ने बनाये थे वे सुगमता से विजित हो गए। इन दुर्गों में जो सेनाएं नियुक्ति थीं वे चंद्रगुप्त और पर्वतक का मुकाबला नहीं कर सकीं। चंद्रगुप्त की संगठित सेनाये तीब्र गति से पूर्व की ओर बढ़ रही थी। कुरू, पांचाल, कौशल और वत्स जनपदों की सेनाएं काशी पहुँच गयीं और पाटिलीपुत्र की ओर आगे बढ़ने लगी। यमुना नदी से सोन नदी तक इन सेनाओं को मगध की सेनाओं से कड़ा सामना नहीं करना पड़ा। सम्राट सुमाल्य नन्द के विलासमय जीवन ने सब कुछ वीर्यहीन बना दिया था, सम्राट के राज्य-काज में शिथिलता देख सेनाध्यक्ष व दुर्गपाल अपने कर्तब्यों की उपेक्षा कर रहे थे। अब सेनाध्यक्ष ने मगध साम्राज्य की शक्तिशाली सेना को पाटिलीपुत्र में केंद्रित कर लिया था। पाटिलीपुत्र अभेद्य दुर्ग था600 हाथ चौड़ी और 45 हाथ गहरी खाई पार कर कोई भी सेना के लिए पाटिलीपुत्र में प्रवेश करना बड़ा ही कठिन ही नहीं असंभव जैसा था। पाटिलीपुत्र के दुर्ग में अस्त्र- शस्त्र से सुसज्जित दो लाख सैनिक विद्यमान थे यह चंद्रगुप्त की पांच लाख सेना के लिए पर्याप्त थीं।

चाणक्य का पाटिलीपुत्र जनता को संदेश

आचार्य विष्णुगुप्त ने लोगों को संदेश में कहा हम तुम्हें मगध के निरंकुश शासन से मुक्त कराने आये हैं, हैम तुम्हारे राजकुलों और कुलमुख्यों की शक्ति का पुनरुद्धार करेंगे, तुम्हे पूर्ण स्वतंत्रता रहेगी,तुम्हारे मंदिरों, देवताओं का सम्मान करेंगे और आप अपने समाजों, उत्सवों को मनाओ कोई ब्यवधान नहीं होगा। नंदकुल ने तुम्हारे कुलमुख्यों और नेताओं को बंदी बनाकर रखा है, हमारी सेनाएं तुम्हारे बंधनों को काट रही हैं, मगध राजकुल ने तुम्हे बांध रखा था। हम भारत के पुराने जनपदों और गणों की स्वतंत्रता का अपहरण नहीं करेंगे। चाणक्य के इन विचारों का सर्वत्र स्वागत हुआ यही कारण है कि जब चंद्रगुप्त और "पर्वतक" (पर्वतेश्वर ) की सेनाओं ने पाटलिपुत्र को घेर लिया तो कुरु, पांचाल, कोसल, काशी आदि जनपदों के निवासियों का सहयोग इन सेनाओं को मिलता रहा। अब पाटिलीपुत्र, चंद्रगुप्त और पर्वतक के आगे नतमस्तक हो गया है, मगध के राजा हतास निराश हो गए और सेनापति, सेना भय भीत हो गई है उसे समझ में नहीं आ रहा कि क्या करे ? जनता तो अपने आप चाणक्य के सामने नतमस्तक हो गई थी।

राजतिलक की तैयारी

आचार्य चाणक्य ने कहा--! पुत्र चंद्रगुप्त, अब तुम शीघ्र ही मगध के सिंहासन पर आरूढ़ होने वाले हो। यह इतना विशाल साम्राज्य तुम्हारे अकेले के प्रयत्नऔर उद्द्यम से स्थिर तथा सुरक्षित नहीं रह सकता। इसके लिए तुम्हें अपने महामात्यों की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है। जनता की सहायता और सहयोग भी तुम्हें प्राप्त करने होंगें। इसके लिए तुम आर्यभूमि के विविध जनपदों के परंपरागत धर्म, चरित्र, व्यवहार आदि का आदर करना होगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि संसार में जनता की ताकत सबसे बड़ी है और जनता के कोप से बढ़कर अन्य कोई कोप नहीं होता। राक्षस ने मगध साम्राज्य का महामंत्री बनना स्वीकार कर लिया अब आचार्य चाणक्य की योजना सफलाभूत हुई और लक्ष्य पूरा हुआ।

और अंतिम  प्रयाण की ओर 

सारा भारत एक राजनैतिक शक्ति के अंदर आ गया है जिस सांस्कृतिक बृहत्तर भारत की आध्यात्मिक धारा आदि शंकराचार्य ने बहाई थी उसे राजनैतिक स्वरूप में मैंने खड़ा कर दिया है । अब मेरा कार्य समाप्त हो गया है उन्होंने चंद्रगुप्त को सम्बोधित करते हुए कहा! अब बृहत्तर भारत एक राजनैतिक सूत्र में वध गया है इसलिए मैं पुनः अपने पुराने कार्य में लग जाऊँगा। सारे मंत्रिमंडल के सदस्यों ने आचार्य चाणक्य से निबेदन किया कि वे मगध की राजधानी में रहें कुमार चंद्रगुप्त ने कहा आचार्य बिना आपके मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा हूँ। आचार्य चाणक्य ने सबकी मंशा स्वीकार कर राजधानी के बाहर एक कुटिया बनाकर रहने लगे वहां उन्होंने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा जो आज भी प्रासंगिक है और सारे विश्व में उसके उदाहरण दिये जाते हैं। एक किंबदंती आम जनमानस में है उसको बिना पूरा किये चाणकय कथा समाप्त नहीं हो सकता, एक दिन एक विदेशी राजनीतिज्ञ पाटिलीपुत्र में आता है (अधिकांश देशों के राजदूत आते ही है) वह आचार्य चाणक्य से मिलने जाता है देखा उसने कि आचार्य कुछ कार्य कर रहे हैं लेकिन जब आचार्य को सूचना मिली कि कोई राजदूत मिलने आया है तो उन्होंने जो दीपक जल रहा था उसे बुझा कर दूसरा दीपक जला दिया। उसने पूछा आचार्य आपने दूसरा दीपक क्यों जलाया चाणक्य ने बताया कि मैं जब राष्ट्र का काम कर रहा था तो वह दीपक जला रहा था अब मैं आपसे ब्यक्तिगत वार्ता कर रहा हूँ तो अपने ब्यक्तिगत आय से जो दीपक है जला लिया है। उस राजदूत ने अपने संस्मरण मेलिखा है कि जिस देश क राजनीतिज्ञ ऐसा विचार करता है वह देश विश्वगुरु होगा ही। अब आर्य चाणक्य सौ वर्ष के आस पास पहुचने वाले हैं अपने आँखों से भारतवर्ष का परमवैभव देखा, चक्रवर्ती सम्राट देखा बड़े सुखी मन से 283 ईशापूर्व उन्होंने शिक्षा देते हुए ईश्वर को आह्वान किया और उस लोक की यात्रा की जहाँ से वापस नहीं लौटा जाता। अब पाटिलीपुत्र शांत और स्तब्ध रह गया उनकी कथाये अनादि काल तक रहेंगी जो हमे प्रेरणा देती रहेंगी।

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