यदि सुभाष वापस आते तो--!
नेताजी सुभाषचंद्र बोस की लोकप्रियता दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ रही थी नेताजी निरपेक्ष भाव से राष्ट्र हित में निर्णय ले रहे थे। गाँधीवादी बहुत परेशान थे उन्हें लग रहा था कि सुभाषचंद्र बोस लोकप्रियता के उच्च शिखर पर होंगे तो हमारा क्या होगा ? अंग्रेजों की परेशानी अलग प्रकार से दिखाई दे रही थी वे किसी भी कीमत पर किसी राष्ट्रवादियों को बर्दास्त नहीं कर पा रहे थे, इसलिए प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से गांधीवादियों को समर्थन करते जा रहे थे।
सावरकर में सुभाष
1940 में सुभाषचंद्र बोस का प्रवास महाराष्ट्र में था, वे ट्रेन से जा रहे थे तभी उन्हें आरएसएस का पथ संचलन निकला हुआ था दिखाई दिया। उन्होंने ट्रेन से ही देखा और पूछने पर पता चला कि यह डॉ हेडगेवार द्वारा स्थापित संगठन है। वे बहुत प्रसन्न हुए और डॉ हेडगेवार से मिलने के लिए तय किया और मिले भी लेकिन डॉ हेडगेवारजी बीमार थे उनसे कोई बात नहीं हो सकी। सुभाष जी क्रांतिकारी थे वे देश आजादी के लिए शसस्त्र युद्ध भी करने के हेतु तैयार थे। उसी प्रवासक्रम में उनकी भेंट "वीर सावरकर" से हुई विनायक दामोदर सावरकर तो भविष्यद्रष्टा थे, जब गाँधी-नेहरू राजनीति में कदम नहीं रखे थे उस समय विनायक दामोदर सावरकर को सारा विश्व जानता था। वीर सावरकर का यह दृढ़ मत था कि आजादी सत्याग्रह से मिलने वाली नहीं है, सावरकर से सुभाषचंद्र बोस से लंबी वार्ता हुई, सावरकर का सम्वन्ध हिटलर, मुसोलिनी जैसे नेताओं से भी था वे देश इंग्लैंड के मित्र देशों के विरोधी थे और द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था। वीर सावरकर ने सुझाव दिया कि वे विदेश में रहकर सेना गठित कर सकते हैं जर्मनी और जापान ने जिन भारतीय सैनिकों को गिरफ्तार किया है वे आजाद हिंद फौज में भर्ती हो सकते हैं। लगता है कि सुभाष बाबू के मन में यह बात पहले से चल रही थी वे गांधी जी की तानाशाही से परेशान थे और कांग्रेस में दो ध्रुब हो गया था एक राष्ट्रवादी दूसरा गांधीवादी।
जर्मनी की ओर
28 जनवरी 1941 के अमृतबाज़ार पत्रिका में समाचार आया:--- रहस्यमय और नाटकीय तरीके से श्रीयुत सुभाषचंद्र बोस का उनके एल्गिन रॉड स्थिति घर से गायब हो गए। जिसका उनके घर के सदस्यों के अनुसार रविवार दोपहर को पता चला था--- उनके घर में रहने वालों से पता चला है कि पिछले कुछ दिनों से वह किसी से नहीं मिल रहे थे। अपने कमरे में बंद रहकर वह धार्मिक क्रिया कलाप में ब्यस्त रहते थे---- बाद में पुलिस की विशेष शाखा ने तीन घंटों तक सुभाषचंद्र बोस के कमरे की तलासी ली, श्रीयुत बोस जिस कमरे में रहते थे उसकी गहन तलासी ली गई थी।
राज्य परिषद में 10 नवंबर 1941 को युवराज दत्ता सिंह ने सरकार से पूछा कि क्या सरकार को सुभाष की कोई सूचना है? गृह सचिव ई कनरैन स्मिथ ने उत्तर दिया---! पिछले कुछ दिनों से देश के कुछ हिस्सों में बात होती रही है कि श्रीयुत सुभाषचंद्र बोस रोम अथवा बर्लिन में है और ध्रुवीय ताकतों के साथ एक समझौते में पांचवें कालम के साथ किसी भी तरह से भारत पर जर्मनी के साथ हमला करेंगे। देश में इस संबंध में लघुपत्र पहुँच चुका है और इसमें शक नहीं कि वह दुश्मन से जा मिले हैं। एक और दावा था कि "बर्लिन के एक सम्मेलन में एक समझौते पर हस्ताक्षर हुए हैं। क्रांतिकारी सुभाषचंद बोस भी उपस्थित थे। अन्य पत्र के अनुसार, 'वह एक यूरोपीय देश है और भारत में अपने क्रांतिकारी दल से संबंध है। उन्होंने पहले ही स्व हस्ताक्षरित वक्तव्य जारी कर दिया है। वह कुछ विदेशी ताकतों के साथ व्यस्त हैं।'
उनके परिवार और कुछ निकटवर्ती राजनीतिक सहयोगियों के अलावा किसी को भी सूचना नहीं था कि सुभाष 16 और17 जनवरी1941 की रात को एक मुस्लिम बीमा एजेंट के रूप में रेल से पेशावर रवाना हो गए थे। "कीर्ति किसान पार्टी" के सदस्यों और उत्तर पश्चिम सीमांत प्रान्त की फारवर्ड ब्लाक कार्यकारी समिति के एक सदस्य के साथ सुभाष काबुल पहुँचे और 18 मार्च को रूसी सीमा पार कर गए थे। मास्को से ट्रेन के जरिये वे दो अप्रैल 1941 को बर्लिन पहुंचे थे। अंतिम उद्देश्य के तौर पर भारत में ध्रुवीय ताकतों को पहुँचना उनकी योजना का ही अंग है। जिनके संबंध में उन्होंने निम्न आकड़े दिए हैं: 3 लाख सैनिकों की आंग्ल भारतीय सेना, जिसमें अधिक से अधिक अंग्रेजों की संख्या सत्तर हजार होगी। अधिकांश भारतीय सैनिक किसी भी समय खेमा बदलने की इच्छा रखता था। भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए अत्याधुनिक उपकरणों से लैस एक लाख सैनिक पर्याप्त रहेंगे।
फ्री इंडिया की घोषणा की योजना
20 मई 1943 को सुभाष ने भारत के आजादी के अधिकार की घोषणा के अलावा फ्री इंडिया सेंटर स्थापित करने की योजना पेश किया। भारतीय क्रांति के मस्तिष्क के तौर पर काम करने के अलावा, एफआईसी के कार्यों में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ वैश्विक प्रचार विभिन्न देशों में वितरण के लिए जर्मन, इतालवी, फ्रांसीसी और इस्पानी भाषाओ में एक आधिकारिक पत्र का प्रकाशन क्रांति के लिए भारतीयों को व्यवहारिक सहायता भेजने, ध्रुवीय ताकतों की ओर से इंग्लैंड के खिलाफ लड़ने के लिए एक आजाद भारतीय सेना का गठन तथा विभिन्न मोर्चों पर इंग्लैंड के लिए लड़ रहे भारतीय सैनिकों के बीच प्रचार करना। सुभाष ने विदेश कार्यालय को एफआईसी से सहयोग करने के लिए कुछ अफसरों को पूर्णकालिक तौर पर तैनात करने की अपील की।
आजाद हिंद फौज
9जुलाई 43 को पूर्ण लामबंदी की पुकार के दौरान सुभाष ने आजाद हिंद फौज के असर का प्रारूप स्पष्ट किया:-- पूर्वी एशिया में भारतीय एक ऐसी लड़ाकू सेना तैयार करेंगे जो भारत में ब्रिटिश सेना से लड़ने में सक्षम होगी। जब हम ऐसा करेंगे तो क्रांति फूट पड़ेगी, न केवल देश जनमानस के बीच बल्कि भारतीय सेना में भी पड़ेगी। पूर्वी एशिया में तीस लाख भारतीयों का नारा हो-- "पूर्ण युद्ध के लिए पूरी लामबंदी"। इस पूरी लामबंदी से मैं तीस लाख सैनिकों और---तीस मिलियन डॉलर की उम्मीद करता हूँ। "बहुत जल्दी सम्पूर्ण पूर्वी एशिया में "नेताजी" भारतीयों के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए हैं, क्षेत्र में मौजूद चीनी, जापानी, थाई, वर्मी और अन्य वर्णों के लोग भी उन्हें उसी प्रकार समझते हैं।"
अस्थायी सरकार गठन की योजना
अस्थायी सरकार के गठन की योजना में काम चल रहा था, परंतु सिंगापुर में जापानी सेना के निचले रैंक और हिकारी किकान के अधिकारियों का एक गुट इस योजना के पक्ष में नहीं था। उन्हें भारतीयों पर अपना असर समाप्त होने का डर सता रहा था, हालांकि 9 अक्टूबर को आईजीएचक्यू और जापानी सरकार ने कहा कि यदि सुभाषचन्द्र बोस कार्य में सफल रहते हैं तो तो वह अस्थायी सरकार को मान्यता देने को तैयार है।
राज्यनिष्ठा की सपथ लेते समय सुभाष भाउक हो उठे थे। कुछ शब्द पढ़ने के बाद लगा कि वे रो पड़ेंगे। उनके सैन्य सलाहकारों में से एक, सहवाज खान याद करते हैं कि 'वह इतने भाउक हो उठे थे कि कई मिनट बीत गए और उनके शब्द गले में फंसे भावों को बाहर नहीं ला पा रहे थे। "हम में से प्रत्येक अपने दिमाग में शपथ के शब्दों को दोहरा रहा था, हम सब आगे झुककर, भौतिक तौर पर नेताजी की छबि तक पहुंचने के प्रयास में थे। समूची दर्शकदीर्घा उनसे एकमेव थी, वहां पूर्ण शान्ति ब्याप्त थी। होंठ भिंचे और आँखे उन पर टिकी हुई,हम उनके द्वारा भावनाओं पर काबू पाने का इंतजार कर रहे थे।"
रंगून में नेताजी
4 जुलाई 1944 को रंगून में भारतीयों की रैली को सम्बोधित करते हुए उन्होंने सैनिक और वित्तीय मामलों में पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया से मिलने वाले भारतीय समुदाय के सहयोग पर संतोष जताया। रंगरूट काफी थे, लेकिन समस्या उन्हें जल्दी प्रशिक्षण की थी। "आजाद हिंद सरकार" को भी उसके लक्ष्य 3 करोड़ रुपए से अधिक प्राप्त हो चुका था। सुभाष बाबू को उम्मीद थी कि चंदा लगातार आता रहेगा। अप्रैल में स्थापित "नेशनल बैंक ऑफ आजाद हिंद लिमिटेड" भी सफल रहा। उसकी कई शाखायें खुल गई थी और खुल भी रही थीं। सुभाष बाबू खासतौर पर यातायात व्यवस्था में सुधार पर जोर दिया था ताकि सरकार जापानियों पर आश्रित न रहे। उन्होंने एक नारा दिया जो विश्व प्रसिद्ध हो गया, उन्होंने कहा-- "तुम हमे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
सुभाष बाबू और सावरकर
कुछ लोगों का मत है कि सुभाष बाबू के बाहर जाने की सलाह लेने का श्रेय वीर सावरकर लेने का प्रयास किया हैं। उनके निकटवर्ती सही और अनुचर नरेंद्र नारायणन चक्रवर्ती ने अपने संसमरणों मे सुभाष की बाहर जाने की योजना का उल्लेख किया है। वास्तविकता यह है कि वीर सावरकर को कोई श्रेय लेने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे तो "क्रांतिकारियों की नर्सरी" जैसे थे वे कोई सत्याग्रही, अहिंसावादी अथवा गांधीवादी नहीं थे वे क्रांतिकारी थे जिन्होंने सैकड़ों क्रांतिकारी तैयार ही नहीं किया बल्कि हज़ारों क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत भी हैं। जब सारे विश्व में सावरकर का संबंध था तब गाँधी को कोई जानता नहीं था उस समय वे "इंडिया हाउस" में स्वतंत्रता संग्राम के लिए क्रांतिकारी तैयार किया करते थे। वीर सावरकर के सचिव बालाराव का दावा था कि "22 जून 1940 को मुम्बई में सुभाषचंद्र बोस से भेंट के दौरान सावरकर ने उन्हें हिंदू मुस्लिम एकता और जनांदोलन के प्रयास को रोकने और ब्रिटेन के दुश्मनों से सहयोग लेने का सुझाव दिया था। उन्होंने खासतौर पर सलाह दी कि जर्मनी और जापान जाकर वहां बंदी बनाये गए भारतीय सैनिकों को एकजुट कर बंगाल की खाड़ी की ओर से हमला करें।" बालाराव ने सुभाष और रासबिहारी बोस की जीवनी प्रकाशक को भी लिखा:--
"नेताजी सुभाषचंद्र बोस और वीर सावरकर के बीच एक गुप्त और निजी वार्ता थी,--- कि सावरकर द्वारा सुभाष बाबू को एक निश्चित सलाह दी गई थी कि वह जर्मनी जाकर वहां जर्मनी के बंदी भारतीय सैनिकों को संगठित करने का प्रयास करें। और फिर जर्मनी की सहायता से जापान पहुँचकर श्री रासबिहारी बोस का सहयोग करें। इस संबंध में जापान द्वारा युद्ध का ऐलान करने की पूर्व संध्या पर सावरकर जी ने सुभाष बाबू को श्री रासबिहारी बोस का पत्र भी दिखाया।"
सेना व अन्य संस्थाओं में विद्रोह
डॉ आंबेडकर के निधन के दो महीना पहले अक्टूबर 1956 में एक निजी बात चीत के दौरान 'क्लेमेंट एटली' ने खुद इसका खुलासा किया था । कलकत्ता में 1956 में राजभवन में पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने पश्चिम बंगाल के प्रमुख न्यायाधीश और कार्यकारी गवर्नर फणीभूषण चक्रवर्ती से जो कहा उसे सार्वजनिक करने का साहस जुटाने में उन्हें दो दशक लग गया था। हालात पर नज़र रखने वाली कई हस्तियां एकमत थीं कि भारत को आजाद कराने में "एनआईए" ने बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। फरवरी 1955 में बीबीसी के फ्रांसिस वॉटसन के साथ एक बेबाक साक्षात्कार में डॉ भीमराव आंबेडकर ने हैरानी से कहा, मैं नहीं जानता कि श्री एटली ने अचानक भारत को स्वतंत्रता कैसे देदी । इस रहस्य को वह अपनी आत्मकथा में खोलेंगे। किसी को उनके ऐसा करने की उम्मीद नहीं थी। लेबर पार्टी ने किस कारण भारत को आजाद किया होगा, इसके प्रति अम्बेडकर ने बीबीसी को उनका अपना आकलन पेश किया था।
"सुभाषचंद्र बोस द्वारा गठित राष्ट्रीय सेना। ब्रिटिश इस देश पर इस पक्के इरादे से राज कर रहे थे कि देश में कुछ भी हो अथवा राजनीतिज्ञ जो भी करे, वे कभी सैनिक वफादारी नहीं बदल सकते। इस एक आधार पर वह अपना प्रशासन चला रहे थे और वही खंड-खंड हो गया था"। सुभाषचंद्र बोस की 'आईएनए' गतिविधियां जिन्होंने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव बेहद कमजोर कर दी थी और नौसैनिक बिद्रोह, जिससे ब्रिटिश साम्राज्य को अंदाजा हो गया था कि भारतीय सशस्त्र सेनाओं पर ब्रिटिश की सहायता हेतु विस्वास नहीं किया जा सकता था। न्यायाधीश चक्रवर्ती, भारत की सबसे पुरानी अदालत स्थायी मुख्य न्यायाधीश बनने वाले पहले न्यायाधीश थे, उन्होंने भारत छोड़ने के ब्रिटेन के फैसले के बारे में गाँधी के प्रभाव के बारे में भी पूछा था। चक्रवर्ती के शब्दों में, प्रश्न सुनकर एटली के होठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान उभरी और उन्होंने धीरे से कहा न्यूनतम ---!
स्वतंत्रता श्रेय का असली हकदार
वास्तव में हम भारतीयों को बताया ही नहीं गया कि यह देश कैसे आज़ाद हुआ ? विद्यार्थियों को यह रटाया गया कि "दे दी आजादी हमें खड्ग बिना ढल," फिर चंद्रशेखर आजाद ने गोली क्यों खायी, भगतसिंह को फांसी क्यों हुईं, स्वामी श्रद्धानंद की हत्या का मतलब क्या था? जलियांवाला बाग कांड क्यों हुआ? बिहार में हजारों लोग मारे क्यों गए? कोलकाता और नोआखाली का नरसंहार क्यों हुआ ? और नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज-----! ये सब पाप नेहरू ने किया और यह प्रचार करने में व्यस्त रहे कि देश आजादी अहिंसा के रास्ते मिली और वे सब गांधीवादी थे जिन्होंने देश आजाद कराया।
1960 ऑक्सफोर्ड के नफ्फील्ड कालेज में एटली ने इतिहासकार बरुण डे से यही बात दोहराई। 1967 आजाद की वर्षगांठ पर नई दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में ब्रिटिश राजदूत 'जान फ्रीमैन' ने कहा -- 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह के बाद स्वतंत्रता निश्चित हो गई थी। सभी श्रोता हैरान थे उन्हें आज तक "नेवी विद्रोह" के बारे में कभी बताया ही नहीं गया था। स्वतंत्रता के करीब तीस वर्षों बाद ले. जनरल एस के सिन्हा ने 1 मार्च 1976 को द इस्टेटमैन में द आर्मी एन्ड द इंडियन इंडिपेंडेंस नामक लेख में एक पक्ष और दिया था। असम और जम्मू कश्मीर के गवर्नर रहे सिन्हा कहते हैं-- "आईएनए का असली असर युद्ध के दौरान की बजाय युद्ध के बाद दिखा था," वह कहते हैं-- "सेना में आईएनए के प्रति ब्यापक संवेदना थी, मुझे विस्वास है कि 90 प्रतिशत अफसर उसी लीक पर विचार कर रहे थे।" और उन्होंने आगे बताया-- 1946 में अचानक ही मैंने एक रोचक दस्तावेज देखा, डायरेक्टर ऑफ मिलिट्री इंटलीजेंस ने उसे तैयार किया था। उस पर "टॉप सीक्रेट" भारतीयों को देखने के लिए नहीं" लिखा था--- पेपर में "आईएनए" का उल्लेख था। मुम्बई और जबलपुर के विद्रोह और भारतीय अधिकारियों पर और युद्ध के आरंभिक दिनों में जापानियों द्वारा गोरे देशों की अपमानजनक पराजय का सैनिकों पर पड़ने वाले विपरीत प्रभाव का उल्लेख था। इसका निष्कर्ष यह था कि अब भारतीय सेना व अफसर विस्वसनीय नहीं रह गए थे। इन सब तथ्यों से यह साबित होता है कि "आजादी क्रांतिकारियों के बलिदान, आजाद हिंद फौज और इन सबके मशीहा पुरोधा आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद सरस्वती को जाता है।" 'कमांडर-इन-चीफ' का अपनी ही सेना पर से भरोसा उठ चुका था! जैसा कि "बा माँ" ने अपनी आत्मकथा में कड़े शब्दों में लिखा-- "एक ब्यक्ति ने बीज बोया और उसके पश्चात सबने फल खाये।" जिसका बहुत बड़ा पार्ट व उसके वास्तविक अधिकारी नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे।
नेताजी के भारत लौटने पर कौन शिकार होता ?
2004 में स्वप्नदास गुप्ता लिखते हैं कि 1945 अथवा उसके बाद यदि सुभाष वापस भारत लौटते तो किस पर प्रभाव पड़ता! नेताजी द्वारा अदालत के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद को सामने रखने का दूरगामी परिणाम होता, बोस की अनुपस्थिति में स्वतंत्रता के उपरांत भारत की राजनीति को नया आकर देने वाली एक बड़ी चुनौती पहले ही समाप्त हो चुकी थी। स्वप्नदास गुप्ता यह भी मानते हैं कि नेताजी देश बटवारे को रोक नहीं सकते थे। 1950 के दसक में तीन तरफा राजनीति नजर आती हिंदू महासभा के साथ कांग्रेस का पुरातन पंथी यानी राष्ट्रवादी धड़ा सरदार पटेल के नेतृत्व में, जवाहरलाल नेहरू साम्यवादी धड़े के साथ, और नेताजी सुभाष चंद्र बोस का शिकार कांग्रेस और विशेषकर गाँधीवादी, जवाहरलाल नेहरू होते। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि नेताजी ठीक से पारी चलते यानी संगठनात्मक दृढ़ता और वैचारिक लचीलापन के आधार पर वे देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री होते।
डॉ लोहिया के विचार
स्वतंत्रता सेनानी समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया क्या कहते हैं सुभाष के बारे में! उस समय गांधीवादियों की तरह लोहिया भी 1945 में यह मान लिए थे कि सुभाष अब इस दुनिया में नहीं रहे जबकि आम भारतीय जन सामान्य को आज भी यह विस्वास है कि सुभाष जिंदा हैं। परंतु वे कहते हैं यदि सुभाष वापस आते तो क्या होता ? वे कहते हैं कि वह नेहरू के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बनते लेकिन सुभाष के पास नेहरू की चालाकी और विनयशीलता नहीं थी। मेरे ख्याल से नेहरु जी ने चालाकी की भी! आगे लोहिया कहते हैं कि "मैं जो उन्हें (सुभाष) उनके जीवन काल में नहीं दे सका, उनकी मृत्यु के पश्चात देने की अक्सर सोचता था, नेताजी हल्दीघाटी के आत्मा के प्रतिमूर्ति रूप थे। उनका लक्ष्य स्पष्ट था उन्होंने न तो हार मानी और न ही पीछे हटने की शिथिलता स्वीकारी, और उन्होंने प्रत्येक स्थिति में कार्यवाही करने का प्रयास किया। परंतु यह विचार करना पड़ता है कि हल्दीघाटी की वह आत्मा कुछ और चतुर होती।"
उपसंहार
गांधीवादी कांग्रेस के लिए भी सुभाष ने अपनी मौत से अप्रत्याशित रूप से लाभ का अवसर प्रदान किया। यदि वह जीवित रहते और भारत लौटते तो वह समूचे देश की जनता की सोच अपनी ओर खींचते और कांग्रेस का उनके साथ न रहना, उसकी आत्महत्या होती। परंतु उनके साथ मिलना भी कुछ लाभकारी सिद्ध नहीं होता, वह गाँधी नेहरू के नेतृत्व को ज्यादा कुछ करने को नहीं छोड़ते और अपने विचारों को लागू करते, जिसे गांधीवादी कांग्रेस को मानना ही पड़ता। इस तरह सुभाष बाबू 1939 में निकाले जाने का बदला भी चुकाते।
सुभाषचंद्र बोस के सामने गांधी और नेहरु बौने साबित हो गए होते क्योंकि सारे देश में सुभाष बाबू की लोकप्रियता गाँधी से कहीं आगे बढ़ गई थी इसलिए कांग्रेस ने सुभाष के खिलाफ षड्यंत्र अंग्रेजों से मिलकर रचा और यह साबित कर दिया कि सुभाष अब इस दुनिया में नहीं हैं। जबकि कई ऐसे सुबूत हैं जो यह साबित करते हैं कि सुभाष की मौत जहाज एक्सीडेंट में नहीं हुई थी, एक हिंदी पत्रिका "धर्मयुग" ने लिखा नेहरू की बहन पंडित विजयलक्ष्मी "रूस" से लौटकर आयीं थीं वे पार्लियामेंट में कुछ बोलना चाहती थी और जैसे ही उन्होंने कहा कि मैंने सुभाष के बारे में--- तभी नेहरु जी ने उनका मुँह जोर से दबा दिया। उस पत्रिका ने लिखा कि आखिर वे क्या कहना चाहती थी तो वे हाउस को बताना चाहती थी कि सुभाष रूस की जेल में बंद है। तो अंतिम समय तक गांधीवादी नेहरू सभी सुभाषचंद्र बोस से भयभीत थे खौफ के साये में जीवित रहे ।
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