यदि यह कहा जाय कि ऋषि विश्वामित्र शुद्धि (आर्य बनाने) आंदोलन के प्रथम पुरुष थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगा वे राष्ट्रवाद प्रखर प्रेरणा पुंज हैं, ऋग्वेद का जीवन जिसमे इतिहास के उषाकाल कि हल-चल और तेजस्विता है वैदिक कालीन इतिहास कि तुलना में पौराणिक कथाएं नीरस जान पड़ती हैं पौराणिक साहित्य से प्रभावित हमारा मन वैदिक जीवन की कल्पना नहीं कर पाता, पाणिनी संस्कृत साहित्य द्वारा निर्मित हमारी वाणी वैदिक साहित्य के साथ नये नहीं कर पाती कभी-कभी इस काल के विकसित मानव स्वभाव को समझना कठिन हो जाता है।
दो शरीर एक प्राणऋग्वेद के दस मंडल है प्रत्येक मंडल के अनेक सूक्त है प्रत्येक सूक्त के अनेक मंत्र हैं, इन सबकी भाषा पाणिनी की संस्कृति से हज़ारों वर्ष पूर्व बोली जाने वाली लोकभाषा है. मै आर्यों और असुरों के संघर्ष के समय महाप्रतापी विश्वरथ का वर्णन कर रहा हु उस समय आर्य जाती में केवल पांच जातियां थी ये सप्त सिंधु में रहती थी. सप्त सिंधु में सिंधु, सरस्वती, दृश्द्विती, शतद्र, परुष्णी, असीकृ और वितस्ता में फैला विशाल प्रदेश जो तिब्बत से होकर बिन्ध्य तक फैला आर्यभूमि कहते थे यहाँ भरत नाम की प्रतापी जाति में महाराजा गाधि का जन्म हुआ वे कुशिक वंश के होने का कारन कौशिक भी कहा जाता था वे बड़ी आयु हो गए कोई पुत्र न हुआ जो भरतवंश का उत्तराधिकारी हो सके उनके एक पुत्री सत्यवती हुई जिसका विबाह ऋषि भृगु ऋचीक के साथ हुआ सतयवती ने आपने पाती भृगु से प्रार्थना की की उसके कोई भाई नहीं है यदि वे वरुण देव से प्रार्थना करें तो उसके भाई हो सकता है ऋचीक ने वरुण देव से प्रार्थना की राजागाधी को और ऋचीक ऋषि यानि सत्यवती को एक साथ पुत्र हुआ राजागाधि के पुत्र का नाम विश्वरथ और सत्यवती के पुत्र का नाम जमदग्नि रखा गया दोनों मामा भांजे एक साथ रहने लगे दोनों कभी अलग नहीं होना चाहते थे जैसे दो शरीर एक प्राण हो।लोपामुद्रा ने जब चुंबन लिया
सरस्वती के एक तरफ ''भरत ग्राम तो दूसरी पार भृगु ग्राम'' था लेकिन ये मामा- भांजे बिना एक- दूसरे के रह नहीं सकते थे एक चंचल, रोता तो दूसरा हमेशा मस्त रहता कभी नहीं रोता ये लगभग ७ वर्ष के हो गए दोनों परिवारों को चिंता होने लगी ये साथ छोड़ नहीं सकते तो क्या करना एक को राजा तो दूसरे को ऋषि बनाना है क्या करे समझ में नहीं आ रहा --! एक दिन ''लोपा मुद्रा'' नाम की ऋषि कन्या आयी दोनों को बहुत सुन्दर लगी ''विश्वरथ'' बहुत ही सुन्दर था देखते ही किसी को प्रभावित कर लेता उसका चंचल स्वाभाव देखते ही बनता था एक दिन ''सरस्वती नदी'' के किनारे दोनों खेल रहे थे दोनों में कभी झागड़ा नहीं होता था लेकिन वह दिन भी आया ''लोपा'' भी 'सरस्वती नदी' किनारे आ गयी अनायास ही 'विस्वरथ' को चुम्बन ले लिया स्वभाव से शांति रहने वाला ''जमदग्नि'' को बहुत ही गुस्सा आया उसने एक घूसा विश्वरथ को लगा दिया विश्वरथ को कुछ नहीं सुझा वह दौड़ा- दौड़ा आया आश्रम में 'लोपा' को अपनी शक्ति लगाकर अपनी खीचने लगा ''सत्यवती'' ने देखा क्या हुआ ? 'लोपा' ने बताया कि मैंने 'विश्वरथ' का चुम्बन लिया था उसे 'जमदग्नि' के सामने खड़ा कर दिया इसका भी चुम्बन लो फिर झगड़ा शांति हुआ सभी हॅसने लगे जब दोनों का विबाह होगा तो क्या होगा--?
गुरुकुल में प्रवेश
एक समय वह भी आया दोनों को गुरुकुल में जाना है गुरुगृह जाना यह सोच विचार करते कि जिसके ऋषि ''अथर्वण'' जैसे पिता हों उसे गुरुगृह यानी किसी दूसरे के गुरुकुल क्यों जाना ? जब यह समझ में आया कि शिक्षा तो दूसरे के यहाँ ही ठीक होती है अपने घर नहीं फिर दोनों को ''ऋषि अगस्त'' के गुरुकुल भेजा गया उन्हें आनंद आने लगा यह गुरुकुल तो बहुत बड़ा है बच्चे भी अधिक हैं यहाँ तो आर्यावर्त के बहुत से राजाओं के बच्चे भी पढ़ते हैं लेकिन ये दोनों बहुत मेधावी थे कम समय मे ही अपने गुरु के सर्वाधिक प्रिय शिष्य हो गए, गुरुकुल में एक दिन प्रतियोगिता थी सभी विद्यार्थी तैयार थे विश्वरथ को अभी आये केवल तीन महीने ही हुआ था और सभी विद्यार्थी सालों से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे ''राजा दियोदास'' भी ''अगस्त'' के गुरुकुल में मुख्य अतिथि के नाते उपस्थित थे उनका पुत्र ''सुदास'' गुरुकुल का पुराना क्षात्र था प्रतियोगिता में सभी अपनी- अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर रहे थे वहीँ पर 'विश्वरथ' भी खड़ा था अपने गुरु से 'मन हि मन' याचना कर रहा था कि मै भी भाग लू-! अनायास ही 'ऋषि अगस्त' का ध्यान अपने प्रिय शिष्य की तरफ गया उन्होंने पूछा कि विश्वरथ क्या तुम भी ? उसने अपने गुरु से कहा जो आज्ञा क्या घूमती हुई मटकी पर निशाना लगाओगे तब-तक आवाज आयी कि नहीं ये घूमती हुई हांड़ी में सफ़ेद चिन्ह पर निशाना लगाएगा उसने ''वरुण देवता'' का ध्यान किया और 'वांड' छोड़ा ठीक निशाने पर लगा सभी जै कार करने लगे 'ऋषि अगस्त' ने पूछा वत्स तुमने यह कठिन कार्य कैसे किया 'विश्वरथ' ने कहा आपने तो कहा था मैने वरुण देवता का ध्यान किया उन्होंने मुझे आदेश दिया मैंने वांड छोड़ा -- वह सबमे प्रिय हो गया।कृणवंतो विश्वमार्यम
अब वह सम्पूर्ण ''आर्यावर्त'' में सबसे बड़ा महारथी हो चुका था तभी उसके पिता ''भरतराज गाधि'' का देहांत हो गया ''अगस्त'' उसे अधूरी शिक्षा में छोड़ नहीं सकते थे विश्वरथ का मन राज्य-काज में नहीं लगता वे ऋषि बनना चाहते थे उन्हें मंत्र दर्शन होने लगे थे उनका मन बार-बार आश्रम से निकलने को नहीं कहता वे 'दस्यु राज' को समाप्त करना ऐसा 'अगस्त' क्यों चाहते हैं ये चिंतन उनके मन में रहता वे सभी को दस्यु को भी आर्य बनाना आखिर ''वरुण देवता'' की कृपा 'असुरों' पर क्यों नहीं ? उस समय दो प्रकार के चिंतन की दिसा उभरी ''ऋषि वशिष्ठ'' जो खून शुद्धि (अनुवांशिक) की बात करते वहीँ 'विश्वरथ' सभी को आर्य बनाने का अधिकार मानते थे, ''असुर राज शंबर'' '९९ किलों' का स्वामी बहुत बलशाली था, लेकिन आर्यों में घृणा का भाव था दस्यु केवल दास बन सकते थे दस्यु महिलाये केवल दासी हो सकती थी यही अंतर था विश्वरथ और वशिष्ठ में एक 'राष्ट्रवादी' दूसरा 'कर्मकांडी' वास्तव में विश्वरथ ''कृणवंतो विश्वमार्यम'' के असली उत्तराधिकारी थे ।विश्वरथ का अपहरण
एक दिन अजीब सी घटना हो गयी 'जमदग्नि' दौड़ता हुआ आश्रम में आया 'ऋषि अगस्त' ने उसे ऐसा कभी नहीं देखा था वह बोल नहीं पा रहा था ऋषि ने पूछा क्या बात है-? उसने बताया किसी ने 'विश्वरथ' का अपहरण कर लिया अगस्त तमतमा उठे अपनी तलवार निकाली कौन किया कुछ पता नहीं तब- तक एक मछली पकड़ने वाले ने आकर बताया कि 'शम्बर राज' के सैनिको ने 'विश्वरथ' और उसके मित्र ऋक्ष का अपहरण कर लिया, लगता है कि ''शम्बर'' को यह पता नहीं था जिसका अपहरण किया जा रहा है वह भरत वंश का राजकुमार है असुरों की कोई लड़ाई भरतों से नहीं थी अगस्त यह चाहते थे कि सारे के सारे आर्य एक क्षत्र के नीचे आ जाय विश्वरूप का ''राजा दियोदास'' के यहाँ रहना इसकी एक कड़ी ही थी इसलिए यह अपहरण अनजाने में ही हुआ होगा ऐसा प्रतीत होता है जब दस्युराज शम्बर के यहाँ विश्वरथ पहुचे तो भी ठीक से इनका परिचय यह नहीं हो पाया कि ये 'भरत' हैं एक बंदी जीवन ब्यतीत करते हुए घटनाक्रम हुआ, शम्बर राज का पुत्र बीमार हुआ वहाँ का राजगुरु जो शैव (उग्रदेव) था, ''भगवान शंकर'' उपाशक था सभी 'असुर' 'शंकर' उपाशक यानी 'शिवलिंग' की पूजा करते विश्वरथ को यह समझने में देर नहीं लगी कि यह संघर्ष वरुणदेव और शिवलिंग पूजकों (शैव) के बीच है ।दस्यु राज पर आक्रमण
असुर राजपुरोहित ने शम्बर राज से कहा कि मृत्यु के देवता उसे वापस नहीं कर सकते सभी निराश हो गए बच्चे की माँ ब्यथित हो रोने-चिल्लाने लगी विश्वरथ उसके दुःख को देख न सका उसने दस्युराज से कहा यह तो मर ही गया है एक अवसर मुझे दो हो सकता है मै अपने इष्ट के द्वारा प्रार्थना करू अघोरी को स्वीकार तो न था लेकिन राजा ने आज्ञा देदी विश्वरथ ने वरुण देव का आवाहन किया और उनसे प्रार्थना की हे वरुण देव आखिर ये भी तो आपकी ही संतान है उसे जीवित करो उसने अपनी तपस्या को दावं पर लगा दिया वरुण देव प्रसन्न हो उस बालक को जीवित कर दिया दस्यु परिवार में उसकी धाक सी जम गयी, दस्यु राजकुमारी 'उग्रा' उससे प्रेम करने लगी लेकिन वह तो अनार्य विश्वरथ कैसे स्वीकार कर सकता था लेकिन देवों को यह स्वीकार था सभी मानवों को आर्य बनाया जाय देव आज्ञा से विश्वरथ ने उसे स्वीकार किया वे पति-पत्नी के रूप में रहने लगे, अगस्त कहाँ बैठने वाले थे उन्होंने दस्युराज पर आक्रमण किया आर्यों ने संगठित हो कि भरतों के राजकुमार का अपहरण हुआ है, दस्युराज के ९९ किलों को जीत लिया उग्रा ने विश्वरथ को बलि होने से बचा लिया समय पर अगस्त को सुचना दे अपने किले पर आक्रमण कराया आर्यों की विजय हुई उग्रा के पिता शम्बर ने उग्रा को कुल द्रोहिणी कह उसे पतित कहा लेकिन उसने सभी अपमान पीकर विश्वरथ को जीवन दिया ।और मंत्र दर्शन हुआ
विश्वरथ पर दबाव बनाने लगा कि वह कुरूप 'अनार्य उग्रा' को छोड़ दे अथवा अपनी दासी बना ले यह विश्वरथ को स्वीकार नहीं था वे मानव-मानव में भेद नहीं मानते थे वे कहते थे कि मुझे देव दर्शन हुआ मुझे देवाज्ञा है विश्वरथ को मंत्र दर्शन होने लगे उनका मन राज-पाट में नहीं लगता अब वे तत्सुओं को छोड़कर भरत ग्राम चले गए और उनका राजतिलक हुआ लेकिन उनका मन तपस्वी का था उन्होंने ''कृण्वन्तो विश्वमार्यम'' का उद्घोष किया वे तपस्या रत 'गायत्री मंत्र' के दर्शन किये उन्होने ब्रम्हांड को देखा ही नहीं उसके संघर्षण की आवाज सुना ''ऒम भूर्भुवः स्वः तत्सवितुरवरेण्यं भर्गो धीमहिधियोयो योनः प्रचोदयात'' जिसके द्वारा सभी मनुष्यों की शुद्धि और सभी को आर्य बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी वे आर्यावर्त के सबसे बड़े महारथी थे वास्तव में उनकी कोई वशिष्ठ से प्रतियोगिता नहीं थी वे अपने मार्ग के अकेले ऋषि थे कुछ लोगो ने यह गलत प्रचार किया की विश्वामित्र ब्रम्हर्षि बनाना चाहते थे, वे ऋग्वेद के प्रथम मंत्र द्रष्टा थे वे अपने- आप ब्रम्हर्षि थे वे जब विश्वरथ से विश्वामित्र बने उसी समय महर्षि हो गए तत्सुओं, भरतों समस्त आर्यावर्त के पुरोहित हुए, उन्होंने देवासुर संग्राम को झेला वे सभी को सामान देखते थे शिव और वरुण दोनों को देव मानते थे उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया था अंत में ऋषि अगस्त और ऋषि लोपामुद्रा अपने प्रिय शिष्य से सहमत हो गए, दक्षिण में विश्वामित्र के इस महान कार्य को पूरा किया हमेशा विश्वामित्र को आदर्श मानते रहे, राजा हरिश्चंद्र को वरुण देव के शाप से मुक्त करने हेतू नरमेध यज्ञ करने जगदमनी और विश्वामित्र गए सम्पूर्ण आर्यावर्त के सभी राजा उपस्थित थे वे विश्वरमित्रा का प्रताप देखने आए थे की आज नर बलि होगा तो पूरे आर्यावर्त मे विश्वामित्र की बदनामी होगी वे आज क्या कहेगे लेकिन अपने प्रताप से शुनह शेप जो बलि के लिए लाया गया था उसके मुख से वेद मंत्र आया और सभी ने देव दर्शन किया जय-जय कर होने लगा उस सुनहशेप को उन्होने अपना पुत्र स्वीकार किया उन्होने अपने राज्य के उत्तराधिकारी के नाते अपने पुत्र को राजतिलक कराया और अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी 'सुनःशेप' को अपनाया अब वे महाराजा सुदास अथवा आर्यावर्त के पुरोहित नहीं थे भारतों को उनका राज़ा मिल चुका था वशिष्ठ के पुरोहित होने से आर्यावर्त खंड-खंड हो रहा था, एक दिन वे उठे रोहिणी का मुख देखा और कमंडल लिए जंगल की तरफ चलते चले गए---!
ऋषि की मर्यादा
राक्षस जब ऋषियों परेशान करने लगे उस समय तमाम ऋषियों ने उनसे कहा की आप तो अकेले ही सभी राक्षसों का संहार कर सकते हैं फिर क्यों किसी की खोज कर रहे हैं लेकिन वे अपनी मर्यादा जानते थे श्री राम के अतिरिक्त उनके संसाधनो का उपयोग कोई कर ही नहीं सकता था जिन शास्त्रों का विश्वामित्र शोध किये थे उसे केवल वे ही प्रयोग कर सकते थे इस नाते उन्होंने दशरथ से राम की याचना की ऋषियों के पूछने पर उन्होंने बताया की इन शास्त्रों का उपयोग विश्वरथ करता था अब वह विश्वामित्र होने के कारन उसका उपयोग मै नहीं श्रीराम ही कर सकते हैं, उन्होंने प्रत्यक्ष देवासुर संग्राम देखा वह और कुछ नहीं शैव और वरुण के समर्थकों,अनुयायियों अथवा उस संस्कृतियों के मानाने वालों के बीच का संघर्ष वे दोनों के पूज्य हो गए वे राष्ट्र को मजबूत दिशा में ले जाना चाहते थे वे सभी को आर्य बनने से वे बंचित नहीं होने देना चाहते थे दोनों को एक करने का संकल्प आर्यावर्त के सर्वश्रेष्ठ राजवंश भगवान श्रीराम द्वारा रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना करा पुरे भारतवर्ष को आर्यावर्त में परिणित करना दोनों एक हैं यह सिद्धकर पूजा पद्धति विकसित कर भारतवर्ष- आर्यावर्त को राष्ट्र स्वरुप दिया, ऐसे थे हमारे राष्ट्रऋषि विश्वामित्र, जब हैहय सहस्त्रार्जुन ने विश्वामित्र, ऋषि जमदग्नि के गुरुकुल पर हमलाकर गुरुकुल को नष्ट किया और परसुराम के माता- पिता जमदग्नि की हत्या की उस समय भी परसुराम ने विश्वामित्र बाबा आप तो अकेले ही अर्जुन का संहार कर सकते थे तब भी विश्वामित्र ने यही उत्तर दिया था मै ऋषि की मर्यादा मे बधा हूँ इसी कारण परसुराम ने एक हाथ मे शास्त्र दूसरे मे शस्त्र उठाया, हमें लगता है कि भगवान परसुराम विश्वामित्र की प्रतिछाया हैं.
1 टिप्पणियाँ
विश्वामित्र वेदों के प्रथम मंत्र द्रष्टा थे वे असुरों को भी आर्य बनाना चाहते थे वे सर्ब प्रथम ऋषि थे जिन्होंने आर्यावर्त को राष्ट्रचेतना का प्रथम मंत्र दिया वे राष्ट्र ऋषि थे.
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