भारतीय धरोहरों को समाप्त करने का प्रयास (बिहार)--!

गौरवान्वित करने वाली भूमि--!


बिहार ने २६०० वर्षो तक भारत वर्ष पर शासन ही नहीं किया है बल्कि भारतीय संस्कृति के विकास में बहुत ही बड़ी भूमिका भी निभाई है इस भूमि को जहाँ विश्वामित्र के कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है वहीँ अहिल्या, ऋषि गौतम, महर्षि वाल्मीकि, याग्यबल्क्य, कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र और उदयनाचार्य जैसे आचार्यों की योग साधना भूमि भी है, राजगिरी की ताकतवर सत्ता को भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन- भीम द्वारा समाप्त कर जरासंध के पुत्र को गद्दी पर बैठाया यहीं आचार्य चाणक्य ने सम्राट नन्द वंश को समाप्त कर मौर्य वंशीय चन्द्रगुप्त मौर्या को पाटलिपुत्र के सिन्हासन पर बैठाया ही नहीं तो वह चन्द्रगुप्त मौर्य धरती का चक्रवर्ती सम्राट बना जिसने यवनों को भारत बाहर सिन्धु पार भगाया समझौते में यवन सेनापति सैल्युकश की पुत्री से विबाह किया, इस प्रदेश का इतिहास भारत के गौरव को बढ़ने वाला है लेकिन यहाँ के सेकुलर राजनेताओं द्वारा भारतीय संस्कृति, इतिहास व महापुरुषों की घोर उपेक्षा हुई है, बिहार के वैदिक, पौराणिक, कथाओं, इतिहास पुरुषों, महापुरुषों के स्थानों का विकास कर पर्यटन को बढ़ावा देकर राष्ट्रवाद को परिलक्षित किया जा सकता था भारतीयों के गौरव को पुनः जागृति किया जा सकता था दुर्भाग्य यह है कि इन भारतीय महापुरूषों व उनके स्थानो को राजनेता साम्प्रदायिक दृष्टि से देखते हैं वहीं उनका विस्तार व वर्णन जिससे देश का लाभ नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का विरोध अधिक होता है।

राष्ट्रवाद के चितेरे---!


वैदिक मंत्रद्रष्टा विश्वामित्र-- ऋग्वेद के तृतीय मंडल में 66 मंत्रों के द्रष्टा जिन्हें गायत्री मंत्र द्रष्टा होने का गौरव प्राप्त है जिन्हें राजा से ऋषी होने का सम्मान प्राप्त किया ऐसे ऋषि विश्वामित्र की कर्म भूमि "बक्सर" जिन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को शस्त्र और शास्त्र शिखाया जिन्हें बिहार की भूमि को कृषि योग्य बनाया ऐसे 'ऋषि विश्वामित्र,' जिन्होंने राम लक्ष्मण के द्वारा आततायी राक्षसों का वध किया, 'भगवान राम' को लेकर 'जनकपुर' स्वयंबर में जाते हैं जो सभी अहिल्या स्थान, गौतम ऋषि स्थान का दर्शन कराते हैं ऐसे "विश्वामित्र" का 'बक्सर' उपेक्षा का शिकार है।


वैदिक मंत्रद्रष्टा ऋषि गौतम---!

गौतम ऋषि वैदिक मंत्रद्रष्टा थे वे न्याय दर्शन के प्रथम प्रवक्ता थे तत्कालीन हिमालयी क्षेत्र में रहते थे वर्तमान में बिहार के मधुबनी जिला में कमतौल के पास में है, उनकी पत्नी का नाम अहिल्या था वह एक राजकन्या थी उस समय राजा महाराजा अपनी लड़कियों का विवाह ऋषियों के साथ करना पुण्य मानते थे हम समझ सकते हैं कि जहाँ राजा के यहाँ सभी प्रकार की सुख सुविधा उपलब्ध है वहीं ऋषियों के साथ दुःख ही दुःख लेकिन वह बड़े ही प्रसन्न मन से इसे राजकुमारियां स्वीकार करती थीं यह विवाह सबसे अच्च्छा माना जाता था, इनके पुत्र का नाम शतानन्द व पुत्री विजया थीं, ये कर्मकांडी न होकर ज्ञानमार्गी थे वेदान्ती थे "एकंसद विप्रा बहुधा वदन्ति" के प्रेरक थे, जो पौराणिकों ने अहिल्या के बारे में भ्रम फैलाया है उससे मैं सहमत नहीं हूं क्योंकि "देवराज इंद्र" कोई साधारण देवता नहीं है वेदों में कई स्थानों पर "इन्द्र" नाम आया है वह कही "अध्यक्ष" है तो कहीं कुछ और ? फिर ये इन्द्र कौन है ? हिन्दू धर्म में 'देवराज इंद्र' का वर्णन मिलता है जो सैकड़ो वर्षों की तपस्या करने के पश्चात यह 'देवराज इंद्र' पद प्राप्त होता है लेकिन जब हम देखते हैं तो प्रत्येक स्थान पर 'देवराज इंद्र' कुछ न कुछ गड़बड़ करते दिखाई देते हैं यह वास्तव में "क्षेपक" के अतिरिक्त कुछ भी नहीं यह सब बौद्धों ने अपने जातक कथाओं में गढ़ा है इन्हें 'हिन्दू धर्म' में कमी दिखाना था तो उन्होंने हिन्दू धर्म शास्त्रों में बहुत अधिक गड़बड़ी की हमारे पौराणिकों ने वैसे ही स्वीकार कर लिया ये "बौद्ध" कौन हैं वर्तमान में जो वामपंथी हैं वे ही उनके स्वरूप में है।

और मैं पहुंचा उचैत भगवती--!

ऊचैत भगवती बिहार के मधुबनी जिला में स्थित है यहाँ के लोंगो में इसे 52 शक्तिपीठों में मानते हैं बड़ी ही मान्यता प्राप्त है यहाँ जाने के पश्चात एक कार्यकर्ता श्री अभय सिंह ने बताया कि यही बगल में चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक कालिदास का जन्म स्थान है मेरे लिए यह बिलकुल आश्चर्य करने वाली बात थी उत्सुकता के कारण मैं वहाँ जा पहुंचा बड़ी निराशा हुई पर्यटन व बिकाश के नाम पर कुछ भी नहीं लोगों ने बताया कि वे जब वे शास्त्रार्थ में सरस्वती को पराजित कर स्वयंवर में विवाह किया फिर जिस "भगवती काली" के पास गए वह ही "ऊचैत भगवती" स्थान है वहीं पर एक छोटी नदी का स्वरूप है जो पहले बड़ी नदी रही होगी जिससे वे 'गंगाजी' फिर 'उज्जैन' 'विक्रमादित्य' की राजधानी पहुँचते हैं, 'कालिदास' के जन्म के बारे मे कई प्रकार की भ्रांतियां हैं कुछ लोग उन्हें उड़ीसा कुछ बंगाल का बताते हैं लेकिन उनके साहित्यों में हिमालय का पुट मिलता है और बिहार का यह क्षेत्र हिमालय पर्वत का ही हिस्सा माना जाता है, 'महाकवि कालिदास' विश्व के महान कवियों में से एक थे उन्होने 'कुमार सम्भव' सहित विक्रमौर्यवंशियं, अभिज्ञान शाकुंतलम, रघुवंश, ऋतुसंहार काब्य ग्रंथ लिखा अभिज्ञान शाकुंतलम की गणना विश्व की सर्वोत्तम कृतियों में से एक है, विक्रमौर्यवंशियं का कथानक ऋग्वेद पर आधारित पुरूरवा और उर्वशी से संवंधित है जहाँ मालविकाग्निमित्र में शुंगवंश के राजा अग्निमित्र पर आधारित है वहीँ रघुवंश में सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन है, कुमार सम्भव में शिव-पार्वती और कार्तिकेय का वर्णन मिलता है, ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं के मिलन यानी प्रेमी प्रेमिकाओं के मिलन व विछोह को दर्शाया गया है इनके सारे साहित्यों में हिमालयी छाप होने से यह सिद्ध हो जाता है कि वे मिथिला वासी ही थे, दुर्भाग्यवश बिहार के सेक्युलर राजनेताओं ने इन सांस्कृतिक विरासत को नजरअंदाज किया है।

सीतामढ़ी----!

सीतामढ़ी के बारे में बहुत भ्रांतियां हैं बाल्मीकि रामायण में ऋषि बाल्मिकी लिखते हैं कि अहिल्या स्थान से उत्तर पश्चिम की ओर विश्वामित्र श्रीराम लक्ष्मण को लेकर जनकपुर जाते हैं लेकिन जनकपुर अहिल्या स्थान से उत्तर दिशा में है जहाँ जनकपुर है वहीँ आस पास सीताजी का जन्मस्थान होना चाहिए वैसे सीतामढ़ी और जनकपुर के बीच एक गाँव है ---- जहाँ कहते हैं कि यह जन्मस्थान है, कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हो सकती है जो मेरा उद्देश्य नहीं है लेकिन कुछ बाते मैं बताना चाहता हूँ एक बहुत बड़े इतिहासकार "सीतामढ़ी" में हुए हैं "कुंजबिहारी जालान" उन्होंने बहुत सारे पुस्तकें लिखी हैं जिसमें "द्वापरकालीन भारत", "कलिकालीन भारत" मिथिला के बारे में वड़ा ही शोधपरक ग्रंथ लिखा है प्रामाणिक भी है उनका कहना है कि अभी जहाँ पर सीताजी का जन्म माना जाता है "पुनौरा धाम" (सीतामढ़ी) स्थान वहाँ पर जंगल था कोई भी मनुष्य इस जंगल में जाता नहीं था अंदर एक सर्प रहता था लोग भयाक्रांत रहते थे, एक दिन एक साधू वहां आया वह जंगल में जाना चाहते थे लोगों ने उसे रोका वह नहीं माना अंदर जाते ही एक सर्प उसे मिला ये कुछ भयभीत होकर उसे देखने लगे लेकिन उसने उस साधू को कोई क्षति नहीं पहुँचायी वह साधू को देखता फिर एक दिशा में आगे बढ़ता साधू ने उसका अनुसरण किया देखा कि वह काला सर्प एक पीपल के बृक्ष के जड़ के अंदर घुसने का प्रयास कर रहा है और उसमें से कुछ मूर्तियां नीचे गिर रही हैं उस साधू ने मुर्तियों को इकठ्ठा कर वहीं स्थान साफकर मूर्ति की पूजा अर्चना करने लगे जब दो दिन बीत गया तो वहाँ के लोगों ने उसे खोजते खोजते उस स्थान पर पहुंचे जहां साधू मुर्तियों की पूजा कर रहा था तभी तो उस स्थान को सीतामढ़ी कहने लगे, प्रयागराज के पूज्य प्रभुदत्त ब्रम्हचारी लगातार प्रतिवर्ष आते थे उन्होने इसे प्रचारित किया कि ये ही भगवती सीताजी का जन्मस्थान है, गजट में जब खोजा जाएगा तो शायद ही सीतामढ़ी का नाम जिला मुख्यालय में मिलेगा, लोकसभा में बीजेपी के सांसद प्रभात झा ने इस बारे में प्रश्न किया था तत्कालीन सांस्कृति मंत्री श्री महेश शर्मा ने बताया कि ऐसा कोई लिखित प्रमाण नहीं है कि सीताजी का जन्मस्थल सीतामढ़ी ही है, यह विबाद का विषय हो सकता है लेकिन यह तो सत्य है कि 'जनकपुर' और 'सीतामढ़ी' है अथवा आस-पास कोई स्थान इस पर काम करने की आवश्यकता है सरकार को इस दिशा में जागरूक होना चाहिये।

वैशाली गढ़----!

'बाल्मीकि रामायण' के अनुसार जब 'विश्वामित्र' 'श्रीराम- लक्ष्मण' को लेकर 'जनकपुर स्वयंवर' में जा रहे थे यही हरिपुर (हाजीपुर) 'कोनहराघाट' से गण्डक पार किया था आज भी "रामचौरा" स्थान है वे "अहिल्या स्थान" के रास्ते में थे भगवान राम पूछते हैं कि हे गुरुवर यह जगमगाता हुआ नगर कौन सा है विश्वामित्र कहते है कि हे राम यह तुम्हारे पूर्वजों की बसाई हुई राजधानी विशाल पुरी (वैशाली) है इस नगर के चारों तरफ विशाल मंदिर थे जिसमें एक कुँवा खुदाई हो रही थी जिसमें विशाल "चतुर्मुखी शिवलिंग" मिला जिसे "चंद्रगुप्त विक्रमादित्य मौर्य महादेव" मंदिर कहा जाता है, जहाँ पर गढ़ माना जाता है वहां पर एक तालाब है खुदाई करने के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन एक ब्यक्ति मिट्टी निकाल रहा था कि उस तालाब में भगवान विष्णु की हज़ारों वर्ष पुरानी मूर्ति पायी गई पूरे क्षेत्र में हंगामा खड़ा हो गया वहीं के एक मंदिर में उस मूर्ति की पूजा अर्चना की जा रही है, सब कुछ विलुप्त हो गया बौद्धों ने सभी सनातन धर्म से जुड़ीं हुई संस्कृति, मंदिरों को नष्ट कर दिया आज जब खुदाई हो रही है तो जहाँ तहाँ मंदिरों मूर्तियों के अवशेष मिल रहा है,वैशाली हिन्दू धर्म संस्कृति बड़ा केंद्र रहा है इधर ध्यान देने की आवश्यकता है नहीं तो आने वाले समय में लोगों को लगेगा कि यहां हिन्दू थे ही नहीं।

!

गया जी---!

गयाजी हिंदू धर्म का प्राचीन धर्मस्थल है मान्यता है कि गयासुर नाम के राक्षस को भगवान विष्णु ने यहीं मारा था उसी के ऊपर पैर रखने के कारण विष्णुपद मंदिर है मंदिर में भगवान विष्णु के पैर की पूजा करने हज़ारों लाखों लोग संपूर्ण देश ही नहीं विश्व से आते हैं।एक दूसरी मान्यता है कि जब तीनों लोकों पर राजा बलि का शासन था देवताओं का राज्य वापस दिलाने हेतु भगवान विष्णु ने बाल ब्राह्मण का रूप धारण कर राजा बलि से ढाई कदम जमीन मागा था धरती को नापते हुए उन्होंने अपना दूसरा पैर गयाजी में रखा था, इस कारण अपने पूर्वजों का तर्पण करने सारे विश्व से सनातन धर्म मानने वाले पितृ पक्ष में आते हैं लेकिन दुर्भाग्य कैसा है कि बोध गया है जहाँ सारी ब्यवस्था है गयाजी है कोई ब्यवस्था नहीं है लगता है कि हिंदू गया गुजरा है कोई पूछने वाला नहीं है सरकार तो लगता है कि हिन्दू धर्म से जुड़े सारी चीजें नष्ट करना चाहती है।

मंदार पर्वत -----!

मंदार पर्वत बिहार के बांका जिले में स्थित है कई पुराणों तथा बहुत साहित्यों में मंदार का वर्णन मिलता है यह वही स्थान है जहाँ समुद्र मंथन किया गया था समुद्र मंथन क्षीरसागर में हुआ था इसके प्रमाण के रूप में देवघर के पास ही नागबसुकी का स्थान है जिसके द्वारा समुद्र मंथन किया गया था जहाँ प्रत्येक वर्ष लाखों लोग दर्शन के लिए जाते हैं, इसका मतलब है कि क्षीरसागर गंगाजी के उत्तर तिब्बत तक विशाल क्षेत्र में फैला था उस समय न तो हिमाचल था न ही गंगाजी इसका अर्थ यह हुआ कि मंदार पहाड़ गंगाजी और हिमालय पर्वत से पुराना है। भारत में एक जनजाति पायी जाती है जिसे हम संथाल के रूप में जानते हैं संथाल समाज यह मान्यता है कि उनका मूल स्थान मंदार ही है वे इसे अपना सबसे बड़ा तीर्थ मानते हैं वर्ष में एक बार मकर संक्रांति के दिन लाखों लोग यहां आते हैं वहां पापहरणी कुंड में स्नान करते हैं यह मेला 15 दिन का होता है सारे देश में कही भी सन्थाल होगें उनकी इक्षा रहती है कि वे अवश्य एक बार मंदार तीर्थ यात्रा करें, सारा विश्व इस समुद्र मंथन के प्रति विश्वास व आस्था रखता है दक्षिण एशिया के बहुत सारे देशों में जैसे म्यांमार, श्रीलंका, इंडोनेशिया, थाईलैंड इत्यादि देशों के एयरपोर्ट पर उतरते ही समुद्र मंथन का दृश्य देखने को मिलता है जो सम्पूर्ण विश्व के पर्यटकों को आकर्षित करता है लेकिन दुर्भाग्य कैसा है कि जहाँ यह मंथन किया गया वहाँ इस पर कोई कार्य नहीं किया गया यहाँ तक कि बिहार के लोगों को भी इस घटना की जानकारी नहीं है बिहार की सरकार सेकुलरिज्म के कारण मूल राष्ट्रीय तत्व को समाप्त करने में जुटी हुई है।

रोहिताश गढ़----!

जहाँ 'बिहार' के पूर्वी हिस्से 'बांका' जिले में "मंदार" है वहीं पश्चिमी हिस्से रोहिताश जिले में "रोहिताश गढ़" है, यह किला बहुत ही सुरक्षित तीन तरफ से इसे सोन नदी ने घेर रखा है यह अजेय किला है कोई भी विधर्मी यहाँ पहुंच नहीं सका कहते हैं कि एक बार अकबर के सेनापति "राजामान सिंह" पूर्व की ओर आये तो कुछ दिन यहां रुके थे गढ़ पर तीन बड़े बड़े मंदिर है कभी कोई 'इस्लामी हमलावर' यहां तक नहीं पहुंच सका ये मंदिर इस बात का प्रमाण है यदि कोई भी इस्लामी हमलावर यहाँ आता तो ये मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता था, इस किले को 'सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र' के पुत्र 'महाराज रोहिताश' ने बनवाया था, यहां पर 'उरांव समाज' की संख्या अधिक है कहते हैं कि यह गढ़ लंबे समय तक 'उरांव राजा' के कब्जे में था उरांव समाज इस किले को अपनी "मूलभूमि" मानता है इस कारण प्रत्येक वर्ष "चैत्र" के महीने में पूरे देश से 'उरांव समाज' के लोग वड़ी संख्या में यहां तीर्थ यात्रा के लिए आते हैं यह किला "वैदिक कालीन" है लेकिन समय समय पर बिभिन्न राजाओं ने यहां से शासन किया और अपने अनुसार मरम्मत कार्य व सुधार भी कराया यह समसायिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन बिहार सरकार का कोई ध्यान नहीं है क्योंकि जैसे इस पर ध्यान जाएगा तो 'राजा हरिश्चन्द्र' का नाम आएगा फिर साम्प्रदायिक हो जायेगा इसलिये इस "वैदिक कालीन" 'संस्कृति' को समाप्त किया जा रहा है।

चक्रवर्तियों की राजधानी पाटलीपुत्र--!

"पाटलीपुत्र" का नाम आते ही बिहार ही नहीं पूरे भारत का गौरव झलकने लगता है देश की पहले राजधानी 'हस्तिनापुर' फिर 'इन्द्रप्रस्थ' हुई पुनः हस्तिनापुर उसके पश्चात 'राजगीर' और फिर 'पाटलीपुत्र' हुई यहां चक्रवर्ती सम्राटों ने शासन किया इतिहास बताता है कि 'पाटिलीपुत्र' ने भारतवर्ष पर 2600 वर्ष शासन किया, एक राजपुत्र जिसका नाम "सिद्धार्थ गौतम" था उसने अपना कार्यक्षेत्र 'लुम्बिनी' से लेकर गया 'राजगीर' तक बनाया वे वैदिक मतावलम्बी थे लेकिन कुछ घटनाक्रम होने से उनके अनुयायी उन्हीं के मत को बौद्ध धर्म मानने लगे अहिंसा परमो धर्मा यानी आधा श्लोक इस विचार से देश में कापुरुषता फैल गई अराष्ट्रीयता का भाव आ गया जिसे इसी भूमि पर "आदि जगद्गुरु शंकराचार्य" ने अपने तर्क बुद्धि से समाप्त कर दिया जहाँ जहाँ हिन्दू वहीं भारत का निर्माण "आचार्य चाणक्य" ने किया, 'नंदवंश' के समय जब सत्ता विलासिता की ओर गई राष्ट्रीयता का भाव कम होने लगा तो आचार्य चाणक्य ने सम्राट चन्द्रगुप्त को आगे करके एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया, सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य एक महान शासक थे सारे विश्व में ऐसा कोई भी शासक उस समय नहीं था लेकिन यहां का दुर्भाग्य कैसा है आप जब पटना आएंगे तो चंद्रगुप्त मौर्य व आचार्य चाणक्य का कुछ भी नहीं मिलेगा क्योंकि चंद्रगुप्त मौर्य आएंगे तो राष्ट्रीयता बढ़ेगी इसलिए यहां "महात्मा बुद्ध" मिलेगें जिनसे राष्ट्रीयता का कोई लेना देना नहीं है यही विचार यहाँ के राजनीतिज्ञों का है।

न्याय दर्शन के आचार्य उदयनाचार्य---!

न्याय दर्शन के भाष्यकार उदयनाचार्य बिहार के मिथिला निवासी थे वे मधेपुरा जिला के वलीपुर बगल 'उदा' गांव में पैदा हुए थे वे शंकराचार्य के समकालीन बताये जाते हैं कुछ लोगों की मान्यता है कि वे 9वी दसवीं शताब्दी में हुए थे, उन्होंने समुच्चय सिद्धांत की रचना की ये न्यायवैशेषिक दर्शन के मूर्धन्य आचार्य थे, "समुच्चय सिद्धांत" की रचना "ऋषि गौतम" से प्रारम्भ होकर "उदयनाचार्य" उसके आखिरी कड़ी थे उन्होंने "न्याय कुसुमांजलि" नामक अत्यंत पांडित्यपूर्ण ग्रंथ लिखा, 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' के एक अखिल भारतीय अधिकारी 'श्री सीताराम केदिलाय' अपने भारत यात्रा के दौरान 'उदयनाचार्य' के गांव ''उदा'' गए थे लेकिन किसी बिहारी सरकार के कान पर जूं नहीं रेग रहा कि मिथिला क्षेत्र में इस प्रकार की बिभूति का जन्म हुआ था सरकार को इन सबके लिए समय नहीं है क्योंकि अपने पूर्वजों की जानकारी हमारे लिए गौरव की बात है ।

एक टिप्पणी भेजें

1 टिप्पणियाँ

  1. जब तक वहां सरकारी नहीं बदलेगी तब तक असंभव सा लगता है

    जवाब देंहटाएं