महाकुम्भ
मनुस्मृति का प्रदुर्भाव
न राज्यम न राजाषित न दंडो न दण्डिका
महाभारत में भीष्म पितामह बाण शैया पर पड़े थे धर्मराज युधिष्ठिर उनसे पूछते हैं कि हे पितामह जब राज्य नहीं थे और राजा नहीं थे तो शासन व्यवस्था कैसे चलती थी? पितामह कहते है कि पुत्र वह वैदिक काल था न राजा थे, न राज्य थे और कोई अपराध नहीं करता था इसलिए कोई दण्डाधिकारी भी नहीं था। लेकिन धीरे धीरे समाज में बदलाव आया समाज उत्तश्रृंख यानी अनुशासन हीन होने लग गया फिर धीरे धीरे समाज व्यवस्था बनना शुरू हो गया। उस समय के ऋषि तत्कालीन सबसे बड़े सर्वमान्य ऋषि महर्षि मनु के पास आये समाज में उथल पुथल हो रहा है समाज में कोई नियम होना चाहिए तब भगवान मनु ने ऋषियों को उपदेश दिया वह जब लिपिबद्ध हुआ तो वह नियम "मानव धर्मशास्त्र" जाना गया चुकि "भगवान मनु" के द्वारा उपदेशित था इसलिए आगे उसे "मनुस्मृति" के नाम से जाना गया। उसी समय सभी ऋषियों ने समाज को अनुशासित करने बने रहने हेतु महर्षि मनु को धरती का प्रथम राजा मानलिया वे "राजा महर्षि मनु" के नाते जाने जाते हैं।
कुंभ की परंपरा
वास्तव में कुछ लोगों का मत है कि कुम्भ का वेदों में वर्णन नहीं मिलता तो वे तो ठीक ही कह रहे हैं। वैदिक काल में समाज स्वयं ही व्यवस्थित था, इसलिए किसी भी नियम कानून की आवस्यकता नहीं थी लेकिन किसी भी पुरातन समाज में विकृति होना स्वाभाविक है। इसलिए हमारे ऋषियों ने, मुनियों ने, साधू-संतों ने इस पर चिंता करते हुए स्थान -स्थान पर संत महात्माओं का सम्मलेन करना शुरू किया जो इसमें निर्णय होता था उसे हमारे ऋषि -मुनि और साधू -संत समाज मेँ लागू करने का काम करते थे। धीरे -धीरे इसमें समाज के लोग भी शामिल होने लगे और धार्मिक अनुष्ठान के रूप में प्रतिष्ठित हो गया एक महीने का कल्पवास प्रत्येक माघ मेला प्रयागराज में होने लगा। फिर ऋषियों मुनियों ने शुभ तिथि-लग्न के अनुसार स्थापित किया और धार्मिक मान्यता हो गई। वास्तविकता यह है कि हिंदू धर्म शुद्ध वैदिक धर्म यानि वैज्ञानिक धर्म है इसमें किसी ढोंग को कोई स्थान नहीं है। इसलिए यह कब से शुरू हुआ निश्चित तिथि शायद मिल सके ये लाखों वर्षो से परंपरा चली आ रही है जो आज धार्मिक परंपरा बन गई है।
चेतना का महाकुम्भ
प्रयागराज में आयोजित इस महाकुम्भ में 66 करोड़ श्रद्धालुओं ने गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर डुबकी लगाई। ऐसा सरकारी अकड़ा है लकिन कम से कम तो चालिस करोड़ श्रद्धुओ ने तो अवस्य ही स्नान किया, सामूहिक आस्था के पर्व होने के साथ ही इस कुंभ ने भारत को सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्ध किया है। प्रत्येक दिन करोड़ों लोग संगम पर डुबकी लगाकर अपनी ब्यक्तिगत पहचान को गौड़ करते हुए सनातन परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। आयु और भौगोलिक सीमाओं को दरकिनार करते हुए सारे विश्व से आये हुए युवा, बच्चे और बुजुर्ग समान रूप से अपनी सांस्कृतिक पहचान का विराट रूप देखकर अभिभूत थे। पुरातन और आधुनिकता के इस विराट संगम में महाकुम्भ ने अपनी हुंकार और ओज से कैसे राष्ट्रीय चेतना को झंकृत किया है, विचारणीय है।
समरसता का महापर्व
ये कुंभ क्या है, क्यों है ये कुंभ और क्या महत्व है इस कुंभ का ? समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश की कथा सबने सुनी पढ़ी है, इस पुरी परंपरा का निर्वाहन भारतीय समाज सनातन धर्मी हज़ारों, लाखों वर्षों से करते आ रहे हैं। एक स्थान पर मिलकर सामाजिक धार्मिक गतिविधियों पर चर्चा, जाति, वर्ग, भाषा, पंथ प्रान्त इत्यादि का भेद मिटाते हुए पवित्र भाव से संगम में डूवकी लगाते हैं। गंगा मैया सभी को समान स्नेह देती हुई दिखाई देती है। यह भी दिखाई देता है कि भारत के विभिन्न भागों से आने वाले लोग हिंदी में सहजता से बात कर रहे हैं। इस नाते कुंभ ने इस धारणा को गलत सावित कर दिया कि हिंदी केवल उत्तर की भाषा है। भारतीय संविधान में समरसता की बात की गई है। वह इस महाकुम्भ में परिलक्षित हुआ दिखाई देता था।
सनातन संस्कृति नित्य नूतन
कुंभ महापर्व केवल धार्मिक आयोजन नहीं है ये सामाजिक, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक एकता के महोत्सव के रूप में प्रतिष्ठित हुआ है। यहाँ श्रद्धालु गंगा स्नान, यज्ञ, पूजा- पाठ और संतों के सानिध्य के लिए सभी दिशाओं से आते हैं। यह महाकुम्भ दिव्यतम एवं उच्चतम प्रतिमान स्थापित कर मानवता की धरोहर सिद्ध हुआ है। विश्व में सन्देश गया कि भिन्न -भिन्न जाति, मत और सम्प्रदायों को मानने वाले हम भारतीय गंगा के तट पर एक हैं। कुंभ पर्व भारत की सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक एकता और दिव्यता की अनुपम अभिव्यक्ति है, जिसमे 'संगच्छध्वम, संवदद्धवं' के सूत्र को सभी ने साकार होते हुए देखा। समाज में प्रेम, करुणा और सेवा का भाव ही अमृत के समान है। इसीलिए धर्म, समाज और मानवता की सेवा ही सच्चा अमृतपान है।
"विश्व को चमत्कृत करने वाली है पावन त्रिवेणी संगम में आस्था की डुबकी। "
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