मुस्लिम महिलाओं की धीरे-धीरे निकलती आवाज -----------------!

         

    मुस्लिम महिलाये आवाज उठाने में आगे--!        

 क्या यह अजीब नहीं कि मुस्लिम समाज में सुधारों की आवाज उठाने में महिलाएं आगे हैं-? पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से लेकर ईरान, सऊदी अरब, यूरोप, अमेरिका तक सुधारवादी मुसलमानों के बीच निर्भीक स्वर स्त्रियों का ही है। यह इस्लामी रीति-रिवाजों में पुनर्विचार की जरूरत पर बल देता है। इसलिए अब तसलीमा नसरीन को अपवाद रूप में नहीं लिया जा सकता। उनकी तरह ही अय्यान हिरसी अली, वफा सुल्तान, असरा नोमानी, मुख्तारन माई, अमीना वदूद, मोना एलताहावी, नोनी दरवेश, मलाला, बसमा बिन सऊद आदि की आवाजें मुखर हो रही हैं। अब इन्हें अज्ञानी, इस्लाम विरोधी और अमेरिकी एजेंट कहकर झुठलाया नहीं जा सकता। बसमा तो स्वयं सऊदी राजपरिवार की हैं। आज नहीं तो कल मुस्लिम नेताओं, उलेमाओं और आलिमो को उन पर गंभीर विचार करना ही होगा। धमकी या हिंसा के बल पर किसी को कब तक चुप किया जा सकता है-?

तसलीमा नसरीन की आवाज़ 

 हाल ही में तसलीमा नसरीन ने कहा था कि भारतीय नेता पिछले साठ साल से केवल कट्टरपंथी मुल्ले-मौलवियों को तरजीह देते रहे हैं जो न संविधान की परवाह करते हैं, न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न ही मानव अधिकारों की। उसी तरह, बेनजीर की बेटी और लेखिका फातिमा भुट्टो ने कहा कि अंदरूनी हिंसा से पाकिस्तान खत्म हो सकता है इसलिए सहिष्णुता के मूल्य को अपनाना जरूरी है। ये बातें किसी इस्लाम के दुश्मन अथवा विरुद्ध नहीं, बल्कि स्वयं मुस्लिम समाज की अपनी प्रवृत्तिके खिलाफ लक्षित हैं। विभिन्न देशों में, विभिन्न स्थितियों में मुस्लिम स्त्रियों ने समान रूप से कड़वे सच का अनुभव किया है। यह असमानता उनके निष्कर्ष को गंभीरता से लेने को मजबूर करती है। संक्षेप में, उनकी बातों में तीन बिंदु मुखर हैं। इस्लाम में स्त्रियों की दशा, इस्लामी देशों में गैर- मुस्लिमों की दसा तथा मुस्लिम नेताओं, प्रवक्ताओं द्वारा हर बात पर हिंसा का सहारा लेने की प्रवृत्ति। ईरान से लेकर सूडान और बांग्लादेश से लेकर अमेरिका तक मुस्लिमों में ये तीन कमजोरियां कमोबेश एक समान झलकती हैं। मुस्लिम स्त्रियां सारी दुनिया के मुसलमानों से इन्हीं प्रवृत्तियों को सुधारने की मांग कर रही हैं।

कट्टर पन्थियों द्वारा धमकियाँ 

 नि:संदेह अपने हक की आवाज उठाने वाली महिलाओं को धमकियां दी जा रही हैं। न केवल मुस्लिम देशों में, बल्कि इंग्लैंड, अमेरिका, भारत और कनाडा जैसे देशों में भी इन स्त्रियों पर इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा जानलेवा हमले किए गए हैं। फिर भी वे निर्भीक होकर अपने समुदाय का विवेक जगाने का प्रयत्न कर रही हैं। यह गैर- मुस्लिम उदारवादियों का कर्तव्य है कि वे उन्हें सहयोग दें। इसलिए तसलीमा का भारत संबंधी बयान और भी सामयिक हो जाता है। तात्कालिक रूप से किस बात ने तसलीमा को प्रेरित किया यह तो बयान में नहीं, किंतु अरविंद केजरीवाल द्वारा कट्टरपंथी मौलाना तौकीर रजा से समर्थन मांगने के संदर्भ में इसे देखा जा रहा है। आखिर कोई नेता हिंसक फतवे देने वाले उलेमा के बदले पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे मुस्लिम को महत्व क्यों नहीं देता? इरशद मांझी ने आक्सफोर्ड में मुस्लिम विद्यार्थियों, प्रोफेसरों तथा बुद्धिजीवियों से कहा कि मुस्लिमों को धमकी और शिकायत का रवैया छोड़कर आत्म अवलोकन और खुले विचार- विमर्श पर उतरना चाहिए। मांझी के अनुसार यह तर्क गलत है कि आर्थिक रूप में दूसरों से कमजोर होने के कारण मुस्लिम युवकों में आक्रोश है।

इमान मानने व न मानने का है 

इरशद ने गाजा इजराइल में इस्लामी जिहादी नेता से पूछा था कि आत्महत्या और शहादत में क्या अंतर है-? तो उत्तर मिला कि आत्महत्या तो निराशा में की जाती है जबकि शहीद होने वाले हमारे लड़के अपनी दुनियावी जिंदगी में बड़े सफल रहे हैं। इंजीनियर, डॉक्टर आदि। कई आतंकियों के पास अपना सफल रोजगार था, फिर भी वे आतंकी कार्यवाइयां करते या उन्हें सहयोग देते हैं। अधिकांश उदाहरण बताते हैं कि मुस्लिमों की आर्थिक कमजोरी आतंकवादी बनने का कोई कारण नहीं है। यदि मान भी लें कि किन्हीं कारणों से मुस्लिम युवा खुद को दूसरे समुदायों से अलग-थलग पाते हैं, जिससे उन्हें बहकाना संभव होता है। किंतु क्या यह सच नहीं कि उस हिंसा में कुछ भूमिका मजहब की भी है? मुस्लिम प्रवक्ताओं के मुताबिक जिहादी आतंक से इस्लाम का कोई लेना-देना नहीं। जबकि स्वयं आतंकी डंके की चोट पर इसके उलट अपनी बात कहते हैं। ओसामा बिन लादेन ने 15 वर्ष पहले सऊदी अरब के शाह फहद को लिखा था कि मुख्य विवाद इस्लाम के अनुसार चलने या न चलने का ही है।

समस्या ! सुधार की कोई गुन्जायस नहीं !

मुस्लिम स्त्रियों के मुताबिक यह जरूरी नहीं कि इस्लामी मूल स्त्रोतों से उन नकारात्मक आवाजों को मिटा दिया जाए। केवल यह मान लिया जाए कि ऐसी कुछ चीजें उसमें हैं, जो हानिकारक संदेश देती हैं, बस। मुस्लिम समाज द्वारा यह स्वीकार कर लेना वही कार्य होगा जो अपने वैचारिक स्त्रोतों के बारे में यहूदी और ईसाई समुदाय पहले ही कर चुका है। इरशद और तसलीमा जैसी आवाजें कहती हैं यदि मुसलमान भी अपनी ऐसी कमजोरी मान लें तो यह बड़ा रचनात्मक कदम होगा। यदि मुस्लिम समुदाय अपने वैचारिक स्त्रोतों के एकमात्र सत्य या त्रुटिहीन होने की जिद छोड़ दे तो उसमें विवेकशील चिंतन स्वत: आरंभ हो जाएगा। तब उन्हें यह मानने में संकोच नहीं होगा कि दुनिया में कई तरह के लोग व विश्वास प्रणालियां मौजूद हैं और रहेंगे। इसलिए दुनिया की हरेक चीज, रीति-रिवाज, चाल-चलन, शासन-कानून आदि का इस्लाम के अनुरूप होना या बनाया जाना जरूरी नहीं। यह मानसिकता बनने पर ही दूसरे समुदायों के साथ जियो और जीने दो की भावना सहज रूप लेगी। जब तक मुसलमान अपनी जिद ठाने रहेंगे, समस्या बनी रहेगी जो इस्लाम के अथवा मानवता के हित में नहीं होगा ।

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4 टिप्पणियाँ

  1. Islaam mein mahilaon ko bahut dabayaa jaataa hai , aakhir kab tak bardaasht kareingee ?

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  2. दिब्या जी आपने बहुत सही कहा है पुरे समाज को इनके साथ खड़े होने की आवस्यकता है

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  3. आत्म स्वरूप जी अपने बिलकुल ठीक कहा यदि इस्लाम समय के साथ नहीं बदला तो उसकी स्थिति और भयंकर होगी।

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